Tuesday, December 30, 2014

यूपी की मुस्लिम राजनीति का नया अवतार

परवेज़ सागर
उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की राजनीति करने के लिए एक नया अवतार आ गया है. ये हैं ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के अध्यक्ष असदउद्दीन औवेसी. हैदराबाद से लोकसभा सदस्य असदउद्दीन औवेसी को राजनीति अपने पिता सुल्तान सलाउद्दीन औवेसी से विरासत में मिली है. कभी हैदराबाद तक सीमित एआईएमआईएम ने हाल ही में महाराष्ट्र विधानसभा की दो सीटें जीतकर वहां की सियासी ज़मीन पर कदम रखे हैं. ओवैसी की नज़र अब सबसे ज़्यादा मुस्लिम आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश पर है.

उत्तर प्रदेश में मुस्लिम मतों पर अपना हक़ जताने वाली समाजवादी पार्टी ओवैसी की आहट से परेशान है. सबसे ज़्यादा परेशान हैं सपा नेता आज़म खान. सपा में आज़म खान को सूबे का मुस्लिम चेहरा माना जाता है. सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव भी आज़म खान को बहुत मानते हैं. सरकार में उनका मुकाम दूसरे नम्बर पर माना जाता है. कई मामलों में वो सुपर सीएम की भूमिका में भी नज़र आते हैं. खुद को प्रदेश के मुसलमानों का सबसे बड़ा नेता समझने वाले आज़म खान ओवैसी की काबलियत और उनके हुनर से अच्छी तरह वाकिफ हैं. वे सपा में तो मुस्लिम नेताओं के कद को अपने से ऊँचा होने से रोकते रहे लेकिन औवेसी को कैसे रोकेंगे, समझ नहीं आ रहा. यही वजह है कि ओवैसी को आज़मगढ़ में सभा की करने की इजाज़त नहीं दी गई.

आज़म खान को इस बात का अहसास है कि ओवैसी के यूपी में आ जाने से मुस्लिम समाज में उनकी अहमियत कम हो सकती है. हालांकि, आजम की इस सोच का यूपी में पहले भी दूसरे मुस्लिम नेता विरोध करते रहे हैं. राज्यसभा सदस्य रहे पत्रकार शाहिद सिद्दीकी इसकी सबसे बड़ी मिसाल हैं. पेशे से पत्रकार सिद्दीकी का सपा से जुड़ाव कभी भी आज़म खान को रास नही आया. मौका मिलते ही आज़म ने उन्हे पार्टी से बाहर करा दिया. दरअसल शाहिद अपने अखबार के लिए नरेंद्र मोदी का इंटरव्यू कर आए थे. लेकिन औवेसी तो एक दूसरे राजनीतिक दल से आते हैं जो खुद मुस्लिमों की आवाज़ उठाने वाला दल कहलाता है. ऐसे में आज़म खान अब नई रणनीति बनाने को मजबूर हो सकते हैं.

2017 में राज्य के विधानसभा चुनाव होने हैं. सभी राजनीतिक दल इसकी तैयारी में जुटे हैं. समाजवादी पार्टी पहले से ही बीजेपी और मोदी के बढ़ते प्रभाव से परेशान थी, उस पर ओवैसी के यूपी में आने से उनकी दिक्कतों में इज़ाफा हो गया है.

उत्तर प्रदेश में मुस्लिम वोटरों की संख्या काफी ज़्यादा है. इन्ही वोटों की वजह से 2012 में समाजवादी पार्टी ने बहुमत से ज्यादा सीटें हासिल कर यूपी में सत्ता हासिल की थी. सपा ने मुस्लिम मतदाताओं से चुनाव में जो वादे किए थे वो अभी पूरे नही हुए हैं. मुस्लिम वोटर पहले ही पार्टी से नाराज़ चल रहे हैं. ऐसे में हैदराबाद लोकसभा की सीट पर लगातार तीसरी बार जीते ओवैसी सपा के लिए मुश्किल बढ़ाते दिख रहे हैं. उनकी पार्टी को आमतौर पर मुस्लिम राजनैतिक संगठन या मुस्लिम समाज के प्रतिनिधि के रूप में देखा जाता है. आन्ध्र और तेलंगाना में मुसलमान बड़ी तादाद में ओवैसी की पार्टी का समर्थन करते रहे हैं.

यूपी में मुस्लिम सपा से नाराज़ हैं. बसपा पर भरोसा नहीं है. कांग्रेस का वजूद नहीं है. बीजेपी को तो वोट देंगे नहीं. तो ऐसे में ओवैसी की पार्टी को यूपी के मुसलमानों का साथ मिल सकता है. हां, मुस्लिम वोट में बिखराव हुआ तो फायदा भाजपा को ही मिलेगा.

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Friday, December 26, 2014

इतने खूंखार क्यों बने बोडो उग्रवादी?

परवेज़ सागर
असम के सोनितपुर और कोकराझार जिलों में हुए हमले के बाद केन्द्र सरकार ने सख्त तेवर दिखाये हैं. सेना ने असम पुलिस और सीएसएफ के साथ मिलकर प्रतिबंधित संगठन नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड (एनडीएफबी) के खिलाफ ऑलऑउट अभियान शुरू किया है. यह संगठन पिछले कई सालों से असम में बोडो आदिवासी समुदाय के लिए एक अलग राज्य की मांग उठाता रहा है. केन्द्र ने साफ कर दिया है कि किसी भी स्तर पर उग्रवादियों के साथ बाच-चीत नहीं होगी.
सोनितपुर और कोकराझार में बच्चों और महिलाओं को भी नहीं बख्शा गया. बोडो उग्रवादियों का ये ताबिलानी हमला पेशावर हमले की तरह ही भयानक साबित हुआ, जिसमें 65 से ज्यादा लोगों को अपनी ज़िन्दगी से हाथ धोना पड़ा. असम में ये मसला नया नहीं है. बांग्लादेश और भूटान की सीमा से लगे असम में सालों से जातीय हिंसा एक बड़ी परेशानी बनी हुई है. बोडो उग्रवादी यहां के गैर बोडो लोगों को निशाना बनाते रहे हैं.
असम राज्य की कुल आबादी 3 करोड़ से ज़्यादा है जिसमें तकरीबन 10 फीसदी बोडो जाति के हैं. दरअसल इस विवाद की जड़ बांग्लादेश से घुसपैठ कर यहां बसे मुसलमानों के साथ संघर्ष से जुड़ी है. इनकों यहां बसाने के पीछे कहीं ना कहीं तत्कालीन सरकारों के सियासी मकसद भी रहे. असम की कांग्रेस सरकारों पर आरोप लगता रहा कि वे वोट खातिर बांग्लादेशी मुसलमानों को यहां बसाती रही. पहले से सरकार विरोधी सोच रखने वाले बोडो आदिवासी इन्हें शरण दिए जाने से उग्र हो गए और फिर अलग राज्य की मांग के साथ शुरू हुआ कत्ल-ए-आम का दौर.
भारत सरकार ने इस विवाद के निपटारे के लिये असम में बोड़ो क्षेत्रीय परिषद (बीटीसी) की स्थापना की. जो वहां खुद से प्रशासनिक फैसले करती है लेकिन कानून व्यवस्था की ज़िम्मेदारी राज्य सरकार की है. बोडो उग्रवादी बीटीसी से संतुष्ट नही हैं. इस मसले को और पेचीदा बनाया बोडो उग्रवादियों के खिलाफ खड़े हुए दो संगठनों ने. अलग बोडो राज्य की मांग के खिलाफ हैं गैर-बोडो सुरक्षा मंच और अखिल बोडोलैंड मुस्लिम छात्र संघ. जब इन संगठनों के सदस्य बोडो उग्रवादियों के सामने आते हैं तो भी खूनखराबा होता है.
2012 में 100 से ज्यादा गैर-बोडो मारे गए और करीब 40 हज़ार लोगों को दूसरी जगहों पर जाकर शरण लेनी पड़ी. अब भारत सरकार ने बोडो उग्रवादी संगठन एनडीएफबी से निपटने की योजना पर काम तो शुरू किया है. लेकिन सवाल ये है कि क्या जवाबी कार्रवाई से इनके हौंसले पस्त होंगे? क्या सेना के सामने ये लोग हथियार डाल देंगे? क्या कुछ बोड़ो उग्रवादियों को मौत के घाट उतार देने से इस गंभीर समस्या को हल मुमकिन है? ऐसा लगता तो नही. क्योंकि बोडो उग्रवादियों ने भूटान और म्यांमार में अपने कैम्प स्थापित कर लिये हैं. यहीं से उन्हें एके-47 जैसे आधुनिक हथियार भी मिल रहे हैं. हालांकि सेना ने इन उग्रवादियों के खिलाफ शुरू किए अपने ताज़ा अभियान में चीन, भूटान और म्यांमार को भी शामिल किया है लेकिन देखना होगा कि यह मिशन कितना कारगर साबित होगा.
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Wednesday, December 24, 2014

भारत रत्न- सोशल मीडिया पर लोगों की मिलीजुली राय

परवेज़ सागर
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को भारत रत्न दिये जाने पर सोशल मीडिया में अलग-अलग प्रतिक्रिया आ रही है. राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने ट्विटर पर इस बात ऐलान किया. तभी से फेसबुक और ट्विटर पर लोगों की प्रतिक्रिया आना शुरू हो गई. अधिकांश लोगों ने अटल बिहारी वाजेपेयी और पंडित मदन मोहन मालवीय को देश का सर्वोच्च सम्मान दिेये जाने पर खुशी का इज़हार किया. लेकिन ऐसे लोगों की भी कमी नही जिन्होने अटल जी से जुड़े विवादों को कुरदने में कसर नही छोड़ी.
ऐसी ही मिली-जुली प्रतिक्रियाओं से भरी हैं ये पोस्ट-

युनुस लसानिया- ‏@lasaniayunus
तो भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी के लिये जिन्होने बाबरी मस्जिद गिराने में भागेदारी की थी. फिर तो मोदी को 2002 के लिये नोबेल शान्ति पुरुस्कार मिलना चाहिये.

देवेन्द्र वर्मा, फतेहपुर-
भारत रत्न का भट्ठा तो उसी दिन बैठ गया था जिस दिन भावुकता में मनमोहन सिंह ने सचिन को भारत रत्न देने की घोषण की थी।

नीलम मोहन- ‏@neelamcrosscom
अटल बिहारी वाजपेयी ने देश को नये मुकाम पर पंहुचाया लेकिन सोनिया के प्रति उनके सहानुभूतिपूर्ण रव्वैये से नुकसान भी हुआ.

अभिषेक दुबे, दिल्ली-
नेहरू, इंदिरा को जीते जी भारत रत्न से नवाज़ा गया. राजीव गांधी को उनकी मुत्यू के कुछ माह बाद ये सम्मान मिला. लेकिन अम्बेड़कर, पटेल और अब्दुल कलाम आजाद को ये सम्मान मिलने में तीन दशक क्यों लगे?


अमित कुमार सिंह, पटना-
सही सम्मान सही व्यक्तित्व को. भारत रत्न अटल बिहारी वाजपयी द ग्रेट मैन.

अमित कुमार झा, रानीगंज, बिहार-
खेतों में बारूदी गंध,
टूट गये नानक के छंद
सतलुज सहम उठी, व्यथित सी बितस्ता है।
वसंत से बहार झड़ गई
दूध में दरार पड़ गई।

खाप की राह पर बिहार की पंचायतें

बिहार से चौंकानेवाली ख़बर है. खाप की तर्ज पर गोपालगंज जिले के दो गांवों की पंचायतों ने लड़कियों के जींस पहनने और मोबाइल फोन इस्तेमाल करने पर रोक लगा दी है. एक ही हफ्ते में हुआ यह सब. बिहार में संभवतः ऐसे ये पहले मामले हैं. इस फैसले के पीछे पंचायतों का तर्क है कि लड़कियों पर पश्चिमी सभ्यता का असर रोकने के लिये ये कदम उठाया गया है. जिन दो गांवों में ये फरमान लागू होगा, उसमें एक गांव राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव का भी है. जींस और मोबाइल पर रोक लगाये जाने का ये फरमान बिहार के इन गांवों में एक जनवरी से लागू होना है.
बिहार में खाप पंचायतों जैसी कोई संस्था या संगठन नही होता. देश के सभी गांवों की तरह आम पंचायतें यहां भी प्राचीन समय से चल आ रही हैं. ना तो कभी यहां की पंचायतों ने इस तरह के फरमान जारी किये और ना ही कभी उनका कोई फैसला मीडिया की सुर्खियों में छाया. राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष और सात बेटियों के पिता लालू प्रसाद यादव ने अपने गांव फुलवरिया की पंचायत के इस फैसले पर पर अभी चुप्पी साध रखी है. उनकी तरफ से इस मामले पर अभी तक कोई प्रतक्रिया ना आना भी अपने आप में एक सवाल है. हालांकि गांव की लड़कियों पर इस फैसले की नाफरमानी के लिये कोई सज़ा मुकर्रर नही की गयी है. पंचायतों ने लडकियों के माता-पिता से अपील करते हुये कहा कि वे अपनी लड़कियों को जींस और मोबाइल से दूर रखें.
बिहार राज्य का इतिहास महिलाओं की सम्मान गाथाओं से भरा है. ऐसे में ये रूढ़ीवादी फैसले अजीब लगते हैं. जिस प्रदेश में इस तरह का कोई मामला कभी सामने ना आया हो वहां इसे क्या शुरूआत और अपवाद के तौर देखा जा सकता है? या फिर यह एक नए सिलसिले की शुरुआत है? क्योंकि पंचायतें अक्सर एक दूसरे के फैसलों को अपनाती नज़र आती हैं.
बिहार राज्य में कुल मिलाकर 8,471 ग्राम पंचायतें हैं. यहां की पंचायतों के फैसलों से कभी भी नारी विरोधी आभास नही हुआ. जबकि हरियाणा में तो खाप पंचायतें समाज का वह रूढ़ीवादी हिस्सा हैं, जो आधुनिक समाज और बदलती हुई विचारधारा से तालमेल नहीं बैठा पा रहा है. यही वजह है कि खाप पंचायतों में महिलाओं और युवाओं का प्रतिनिधित्व न के बराबर होता है. अगर इन पंचायतों की मनोदशा और सामाजिक ढ़ाँचे का अध्ययन किया जाए, तो जो बातें सामने आती हैं, वे बेहद परेशान करने वाली होती हैं. जैसे कि हरियाणा, दिल्ली, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खाप पंचायतों के तहत आने वाले क्षेत्रों में लिंग अनुपात सबसे खराब है, जबकि यहां कन्या भ्रूण हत्या का औसत राष्ट्रीय औसत से अधिक है.

बिहार के ग्रामीण समाज का ढांचा किसी भी स्तर पर हरियाणा से मेल नही खाता. ग्राम पंचायतों का तो सवाल ही नही उठता. पर इन दो फैसलों को देखकर ये लग रहा है कि या तो केवल मीडिया की सुर्खियों में आने के लिये ये फरमान जारी किये गए हैं या फिर वाकई इन फैसलों पर चिन्ता जताने की ज़रूरत है?
(C) Parvez Sagar, India Today Group

Tuesday, December 16, 2014

क्या पाकिस्तान समझता है आतंकी हमले का दर्द

अभी दुनिया भर के लोगों के बीच सिडनी और बेल्जियम के हमलों की चर्चा थमी भी नहीं थी कि पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान की सरजमी पर मंगलवार के दिन अमंगल हो गया. खैबर पख्तूनख्वा राज्य के पेशावर शहर में आत्मघाती हमले के दौरान मासूम बच्चों समेत 100 से अधि‍क लोगों की जान चली गई. जबकि चालीस से ज्यादा लोगों के घायल हो जाने की भी खबर है. आतंकियों ने इस हमले के लिए शहर के आर्मी पब्लिक स्कूल को अपना निशाना बनाया. यह स्कूल पेशावर के वारसाक रोड पर स्थित है. हमले के वक्त स्कूल में करीब 1500 बच्चे मौजूद थे. आतंकी संगठन तहरीक-ए-तालिबान ने घटना की जिम्मेदारी ले ली है.
पाकिस्तान में इस तरह का हमला पहली बार नही है. वहां कई बार इस तरह के आतंकी हमले पहले भी होते रहे हैं, लेकिन सवाल उठता है कि क्या पाकिस्तान पर इन हमलों से कोई फर्क पड़ता है? भारत में आतंकी हमलों की साजिश रचने और उन्हे अंजाम तक पंहुचाने वालों को क्या इस तरह के हमलों से कोई सबक मिलता है. ना जाने क्यों लगता है कि पाक के आला अफसर या वहां बैठकर हमारे मुल्क के खिलाफ साजिश रचने वालों को शायद ही उस दर्द की शिद्दत का एहसास होता हो जिसे हमने कई बार महसूस किया है. इसका मतलब ये बिल्कुल नहीं कि हम चाहते हैं कि वहां इस तरह के हमले हों. भारत ने हमेशा इस तरह के आतंकी हमलों की निंदा की है जो दुनिया के किसी भी कोने में हुए हो. इस पूरे साल पाकिस्तान ने खुद कई आतंकी हमलों की मार झेली है. इन हमलों में कई पाक नागरिकों को अपनी जान से हाथ भी धोना पड़ा.
अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि इतना सब कुछ होने के बाद भी पाकिस्तान में बैठे आतंकी सरगना और उन्हे संरक्षण देने वाली वहां की सरकार अपनी हरकतों से बाज नहीं आती. आए दिन भारत में इस तरह के मामलों का खुलासा होता रहता है जिनसे पाक के मनसूबों का पर्दाफाश होता है. हाल ही में चाहे सीमा पर घुसपैठ हो या फिर युद्धविराम का उल्लंघन, पाक की ये नापाक हरकतें लगातार जारी हैं.
हमारे देश के खिलाफ आतंक की फौज तैयार करने वाला पाकिस्तान अंदरुनी तौर पर खुद इतना कमजोर हो गया है कि उसके कई राज्यों में तालिबान और अल-कायदा जैसे बड़े आतंकी संगठन अपनी पैठ बना चुके हैं. बावजूद उसके पाकिस्तान के हुक्मरान अपनी परेशानियों को दरकिनार कर हमारे देश में आतंक फैलाने की फिराक में लगे रहते हैं. दरअसल ये खुद पाकिस्तान के बोए हुए बीज हैं जो अब दरख्त बनकर उनकी जमीन पर कब्जा कर रहे हैं. कहना गलत नहीं होगा कि जो दूसरों के लिए गड्ढा खोदता है वो भी एक दिन उसी गड्ढे में गिरता है.
पाकिस्तान के मौजू हालात पर मशहूर शायर सरदार अनवर का एक शेर हकीकत नजर आता है-
'ये जो इनका हाल है खुद इनकी हरकतों से है, दुआ किसी की नहीं बद्दुआ किसी की नहीं'

http://aajtak.intoday.in/story/opinion-peshawar-army-school-attack-is-a-new-lesson-for-pakistan--1-791793.html

कितने तैयार हैं हम ?


सुबह से कई लोगों की निगाहें केवल समाचार चैनलों पर लगी है. सिड़नी मे सुबह से एक चॉकलेट पार्लर में बंधक बनाये गये लोगों की ख़बर सुर्खियों में है. कई लोगों की जान एक आतंकी के कारण खतरे में है. बंधक बनाये लोगों में एक भारतीय भी है. आधुनिक उपकरण, हथियार, बेहतर सर्विलांस जैसे सब के सब यहां बेकार दिख रहे हैं. एक अकेले आतंकी ने सबको बंदूक की नौक पर नचा रखा है. वहां की सरकार और पुलिस दोनों ही बेबस और लाचार नज़र आ रहे हैं.
दोपहर में इसी तरह की एक बड़ी ख़बर बेल्जियम से आयी. घेंट शहर में चार हथियार बंद अज्ञात लोगों ने एक अर्पाटमेंट पर कब्ज़ा कर लिया. पुलिस ने अर्पाटमेंट के आस-पास के पूरे इलाके को खाली करा लिया. अभी तक किसी के हताहत होने की कोई ख़बर नही है. लेकिन हालात गंभीर हैं. यहां पर एक अहम सवाल खड़ा होता है कि दुनिया के दो बड़े शहरों में एक साथ ये हमला महज़ इत्तेफाक है या फिर कोई बड़ी साजिश ?
आतंकी हमले की ज़िम्मेदारी अभी तक भले ही किसी संगठन ने नही ली है लेकिन इसके पीछे आईएसआईएस का हाथ होने के कयास सबसे ज़्यादा लगाये जा रहे हैं.
इन दोनों घटनाओं के सामने आने के बाद से राजधानी दिल्ली में अलर्ट जारी किया गया है पर यहां सबसे बड़ा सवाल ये है कि हम इस तरह के हमलों के लिये कितने तैयार हैं ? पुलिस ने वीवीआईपी इलाकों और महत्वपूर्ण ठिकानों की सुरक्षा तो बढ़ा दी है लेकिन क्या ये इंतज़ाम काफी हैं ? अक्सर जब दुनिया के किसी भी बड़े शहर में कोई हमला होता है या कोई आतंकी घटना होती है तभी हमारे देश में अचानक सुरक्षा एजेन्सियां अलर्ट जारी कर अपनी काम पूरा कर लेती हैं. लेकिन सुरक्षा एजेन्सियों और पुलिस की ये लापरवाही किसी बड़े हादसे का सबब बन भी सकती है.


Saturday, October 4, 2014

मीडिया को कवरेज नही भागेदारी के लिये बुलाऐं- परवेज़

ताइवान और अमेरिका से संचालित होने वाली अर्न्तराष्ट्रीय संस्था गार्ड़न ऑफ होप फॉउन्डेशन की तरफ से एशियन ह्यूमन गर्ल्स राइटस् कान्फ्रेंस में बोलने का निमत्रंण मिला। चंडीगढ़ के पंजाब विश्वविद्यालय में 28 सितम्बर 2014 से आयोजित इस चार दिवसीय अर्न्तराष्ट्रीय कान्फ्रेंस में एशियाई देशों के प्रतिनिधियों ने खासी संख्या में भागेदारी की। भारत की और से 30 सितम्बर को कान्फ्रेंस में भाषण दिया। देश का प्रतिनिधित्व करना और अपने पेशे से जुड़े विषय पर बोलना मेरे लिये रोमांचक होने के साथ-साथ गौरव की अनुभूति भी था। यहां मेरा वही भाषण पोस्ट कर रहा हूँ। आशा है आप पसंद करेंगे।
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नमस्कार।
एशियन गर्ल्स राइट कान्फ्रेंस के इस सत्र की अध्यक्षता कर रहे माननीय सभापति एन्थोनी कारलसिस। इस कान्फ्रेंस को सफलता पूर्वक भारत में आयोजित करने वाले ताईवान के गैर सरकारी संगठन गार्ड़न ऑफ होप और उनके सहयोगी भारतीय गैर सरकारी संगठन युवासत्ता के सभी सम्मानित पदाधिकारी एंव स्वंयसेवियों.... भारत, ताइवान, पाकिस्तान, नेपाल समेत विभिन्न एशियाई देशों से इस कान्फ्रेंस मे भागेदारी करने आये सभी प्रतिनिधयों और इस सभागार में उपस्थित बालिकाओं के अधिकारों और उनके हितों की लड़ाई लड़ने वाले मेरे सभी सम्मानित साथियों...
सबसे पहले मैं इस आयोजन को सफलतापूर्वक भारत मे आयोजित करने के लिये बधाई देना चाहता हूँ गार्ड़न ऑफ होप संगठन को जिन्होने इस महत्वपूर्ण आयोजन के लिये भारत को चुना और हम सभी को इस आयोजन में भागेदारी करने का अवसर दिया। साथियों मेरा विषय है बालिका अधिकारों के प्रति जागरुकता लाने में टेलीविज़न मीडिया की सक्रीय भूमिका। भारत में जिस तरह से पिछले कुछ वर्षों में टेलीविज़न की पंहुच बढ़ी है और उसके माध्यम से सामाजिक परिवेश में जो बदलाव हुये हैं उन्हे किसी भी स्तर पर नकारा नही जा सकता है। मैं गैर लाभकारी संगठन (एनपीओ) स्मार्ट एजुकेशन एण्ड वैलफेयर एसोसिएशन सेवाऔर परवेज़ सागर फॉउन्डेशन का संस्थापक होने के साथ-साथ एक टीवी पत्रकार हूँ। पिछले कई सालों से भारतीय पत्रकारिता और खासकर टीवी पत्रकारिता में कार्य कर रहा हूँ। मैने खुद टेलीविज़न मीडिया को भारतीय समाज पर असर करते देखा है और देख रहा हूँ। आज टेलीविजन मीडिया के बिना भारतीय सामाजिक परिवेश में सूचना और जनसम्पर्क की कल्पना करना भी बेमानी है। फिर भले ही वो समाचार टीवी चैनल हो या फिर मनोरंजन चैनल। भारत के घर-घर में पंहुचने का सबसे सुलभ और आसाना तरीका टेलीविज़न मीडिया है। जब हम विकास, शिक्षा और जागरुकता की बात करते हैं तो कहीं ना कहीं टेलीविज़न मीडिया की भूमिका उसमे शामिल होती है। ऐसे में बालिका अधिकारों और शिक्षा जैसे अहम मुद्दे को भी इस संचार माध्यम से अलग कर देखा नही जा सकता। लोगों को आसानी से बात समझाने के लिये बेहतर और आसान तरीका केवल टीवी है। साथियों आप सभी इस बात से सहमत होंगे कि हम किसी इंसान को जो बात लिखकर या कहकर नही समझा सकते... उसे चलचित्र यानि ऑडियो-वीडियों के रुप में लोगों को समझाना बेहद आसान है। और उसके लिये ये ज़रुरी नही कि सामने वाले व्यक्ति अनिवार्य रुप से शिक्षित या साक्षर हो।
साथियों भारत में ऐसी बालिकाओं और महिलाओं की कमी नही है जिन्‍होंने विभिन्‍न क्षेत्रों में नई ऊंचाइयों को छुआ है और नये कीर्तीमान भी स्थापित किये हैं। लेकिन अफसोस की बात है कि आज भी कई कारणों से बालिकाओं को बहुत सारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। कई तरह से उनके अधिकारों का हनन होता है। वो चाहे अशिक्षा हो या फिर बाल विवाह जैसी कुरीति हो या यौन शौषण के बढ़ते हुये मामले... सभी में उनके मानव अधिकारों की अनदेखी और हनन होता है। भारत में हर साल इस तरह के हज़ारों मामले सामने आते हैं। बालिका अधिकार हनन, महिला हिंसा और महिला शोषण जैसे कई मामले आये दिन टीवी न्यूज़ चैनल्स के ज़रीये लोगों को पता चलते हैं। हमारी कोशिश रहती है कि इस तरह के मामलों में हम बिना पीडिता की पहचान बताये उसके साथ हुये अन्याय की जड़ तक जायें और अपने माध्यम से जो सकारात्मक सहयोग कर सकते हैं करें। यदि किसी भी स्तर पर इस तरह के मामले को दबाने या छिपाने के प्रयास किये जाते हैं तो हमारी कोशिश रहती है कि ऐसा ना हो पाये और सही तथ्य लोगों के सामने आयें। यहां मौजूद भारतीय साथियों को जानकारी होगी कि इस बात सबसे बड़ा उदहारण दिल्ली का निर्भया केस और यूपी के बदायूं का ताज़ा मामला है।
हमारे समाज में कई इस तरह के उदहारण है कि जिनमें टीवी मीडिया की भूमिका की वजह से बालिकाओं को किसी ना किसी स्तर पर न्याय मिला। ऐसे भी मामलों की कमी नही है जिनमें किसी भी तरह से पीड़िता या उपलब्धि हासिल करने वाली बालिकाओं के विषय में लोगों को टीवी के माध्यम से ही पता चल पाया। एक बड़ा उदहारण यहां आपके सामने रखना चाहुंगा जिसमें बालिकाओं के साथ होने वाले अमानवीय कृत्य को मीडिया ने उजागार किया। कुछ वर्ष पूर्व यूपी के फ़र्रुखाबाद जिले में कम उम्र की लड़कियों को हार्मोन के इंजेक्शन देकर उन्हें समय से पूर्व ही बड़ा किये जाने और उनसे वेश्यावृत्ति कराये जाने का सनसनीखेज मामला सामने आया था। इस मामले के मीडिया में आ जाने के बाद कई लोगों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही हुई थी। यहां तक कि इस मामले की जांच में लापरवाही बरतने वाले कई अधिकारियों के खिलाफ भी कार्यवाही हुई थी।
ऐसा ही एक और प्रकरण यूपी में वर्ष 2012 में सामने आया था जिसमें पूर्वांचल में बालिकाओं के लिये संचालित कथित विश्वविद्यालय में ही उनके साथ अमानवीय कार्य किये जा रहे थे। मामला मीडिया में आने के बाद इस मामले में आरोपियों को जेल भेजा गया।
यहां तक कि इस तरह के मामले भी टेवीविज़न मीडिया के माध्यम से ही लोगों को सामने उजागार हुये जिनमें बालिकाओं को बाहर से लाकर बेच दिया जाता है। घरों में काम कराने के नाम पर उनके साथ यौन शोषण और हिंसा की जाती है। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि इस तरह के मामलों में पाया गया कि उडीसा, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ से बड़े स्तर पर ऐसी बालिकाओं को लाया जाता है जिनके घरों में धन की कमी हो या फिर उनके परिवार भुखमरी के कगार पर हों। टीवी मीडिया के माध्यम से उजागार होने वाले इस तरह के मामलों में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और महिला आयोग के साथ बाल विकास से जुड़े लोगों ने भी आगे आकर कार्यवाही के लिए दबाव बनाया। 
स्मार्ट एजुकेशन एण्ड वैलफेयर एसोसिएशन सेवाऔर परवेज़ सागर फॉउन्डेशन का मानना है कि बालिकाएं भारतीय समाज का सबसे नाज़ुक हिस्‍सा है। जिस तरह से उनके प्रति होने वाले अपराध और हिंसा के मामले बढ़े हैं यकीकन वो चिन्ताजनक हैं। यही नही बाल विवाह के मामलों में बांग्लादेश के बाद भारत का विश्व मे दूसरा स्थान है। यूनीसेफ की एक रिर्पोट के मुताबिक दक्षिण एशिया में कुल बालिकाओं की संख्या से आधी बालिकाओं की शादी 18 साल से पहले हो जाती है। और पांच में से एक बालिका की शादी 15 साल से पहले हो जाती है। आपको जानकर हैरानी होगी कि ये दुनिया में सर्वोच्च दर है। भारत में वर्ष 2005 और 2013 के बीच 43 फीसदी बालिकाओं की शादी 18 साल की उम्र तक कर दी गयी। 10 साल तक की जिन बालिकाओं को स्कूल नही भेजा जाता उनकी शादी की सम्भावनाऐं बढ़ जाती हैं। एशिया में लिंग अनुपात के मामले में अभी भी भारत, अफगानिस्तान और पाकिस्तान में हालात बेहतर नही हैं। इस तरह से इन देशों में बालिका अधिकार हनन के मामलों की संख्या भी ज्यादा है।
2011 की जनगणना से पता चलता है कि कुल लिंग अनुपात 933 से बढ़कर 940 हो गया है। लेकिन 1000 लड़कों के पीछे लड़कियों के अनुपात में गिरावट आई है यानी बच्‍चों का लिंग अनुपात जो 2001 में 927 था वह 2011 में 914 हो गया। नई जनगणना से साफ कि भारत के 22 राज्‍यों और 5 संघ शासित क्षेत्रों में बच्‍चों के लिंग अनुपात में गिरावट आई है। राष्‍ट्रीय परिवार स्‍वास्‍थ्‍य सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार 43 प्रतिशत बालिकाऐं सही देखभाल के अभाव में आज भी कुपोषित हैं। ये उनके मानवीय अधिकारों के हनन की बड़ी मिसाल है।
टेलीविज़न मीडिया की का सहयोग कैसे लें ?
     साथियों भारत में टेलीविज़न मीड़िया की महत्ता पर मैने पहले ही आपको बताया और आप सभी पहले इन सब तथ्यों से वाकिफ भी हैं। कुछ साल पहले तक केवल राष्ट्रीय स्तर के समाचार चैनल होते थे। जिन पर स्थानीय समाचारों या मुद्दों को जगह मिलना आसान नही था। लेकिन पिछले कुछ सालों में भारत में प्रादेशिक समाचार चैनलों की संख्या में खासा इज़ाफा हुआ है। हर राज्य में कई-कई प्रादेशिक समाचार एंव मनोरंजन चैनलों का प्रसारण हो रहा है। प्रादेशिक समाचार चैनलों के आने से नगर स्तर तक की ख़बरों का टीवी पर चलना आसान हो गया है। ऐसे में जो एनजीओ या एनपीओ इस बालिका विकास और अधिकारों के लिये काम कर रहे हैं उन्हे चाहिये कि वो अपने क्षेत्रीय एंव प्रादेशिक समाचार माध्यमों खासकर टेलीविज़न मीडिया के साथ संवाद स्थापित करें। बालिकाओं के साथ होने वाले अपराधों और मानवाधिकार हनन के मामलों को पुलिस के साथ-साथ मीडिया से भी साझा करें। सही तथ्यों को मीडिया के समक्ष रख कर पीड़िता को न्याय दिलाने के प्रयास करें। मैं ये नही कहता कि हम मीडिया वाले खुद किसी को न्याय दे सकते हैं लेकिन हमारे प्रयास से दबाव बनाने की रणनीति सार्थक हो सकती है। यदि आप किसी एनजीओ या एनपीओ का संचालन करते हैं तो आप मीडियाकर्मीयों के साथ बेहतर तालमेल स्थापित करने के लिये उनके साथ कार्यशाला आदि का आयोजन करें। अपनी बातों को उनके समक्ष रखने के साथ-साथ बालिका अधिकारों और शिक्षा जागरुकता सम्बंधी आयोजनों और जानकारी को उनके साथ साझा करें।
मीडिया के माध्यम से जागरूकता बढ़ाने और बालिकाओं को नए अवसरों की पेशकश की जाये। बालिकाओं के सामने आने वाली सभी असमानताओं को समाप्‍त करने के सार्थक प्रयास हों। साथ ही यह सुनिश्‍चित किया जाये की प्रत्‍येक बालिका को उचित सम्‍मान, मानवाधिकार और भारतीय समाज में मूल्‍य मिले। टीवी मीडिया पर इस तरह की बहस आयोजित हों जिनमें बालिकाओं पर लगे सामाजिक कलंक से मुकाबला करने और बच्‍चों के लिंग अनुपात को खत्‍म करने के सम्बंध में बात की जाये। ऐसे समाचारों या कार्यक्रमों के माध्यम से बालिकाओं की भूमिका और उनके महत्‍व के बारे में जागरूकता को बढावा दिया जाये जो बालिकाओं के स्‍वास्‍थ्‍य, शिक्षा, पोषण आदि से जुड़े हों। हमारी संस्था स्मार्ट एजुकेशन एण्ड वैलफेयर एसोसिएशन सेवाऔर परवेज़ सागर फॉउन्डेशन ने अपने कार्यक्रमों और जागरुकता अभियानों में हमेशा स्थानीय मीडिया को शामिल करने की पहल की है। हमने उन्हे कार्यक्रमों की कवरेज के लिये नही बल्कि भागेदारी के लिये आमंत्रित किया।
यदि आपको लगता है कि किसी समाचार चैनल पर ऐसी कोई ख़बर या कार्यक्रम चल रहा है जो बालिका अधिकारों का हनन करता है या सामाजिक तौर पर उसके सम्मान को ठेस पंहुचती है। तो कभी भी भारतीय समाचार टेलीविज़न चैनलों के संगठन एनबीए को इसकी शिकायत कर सकते हैं।
सबसे अहम ज़रुरत इस बात की है कि टेलीविज़न मीडिया के साथ संवाद स्थापित किये जाना चाहिये। और उनको अपने कार्यक्रमों का हिस्सा बनाया जाये। अक्सर लोग शिकायत करते हैं कि मीडिया वाले उनके कार्यक्रम में नही आते या उनके कार्यक्रम की ख़बर नही दिखाते... मगर ऐसा क्यों होता है ये समझना भी ज़रुरी है। दरअसल हर समाचार चैनल अपनी ख़बरों और कार्यक्रमों का स्तर और समय पहले ही तय कर लेता है। राष्ट्रीय समाचार चैनलों और प्रादेशिक या स्थानीय समाचार चैलनों की प्राथमिकता भी अलग-अलग होती है। किसी संगठन या बालिका अधिकारों या हनन के समाचार प्रसारित किये जाना इस बात पर भी निर्भर करता है कि मीडिया के समक्ष वो मामला किस तरह से प्रस्तुत किया गया। यदि पीड़िता या एनजीओ अपनी बात या सूचना को सही तथ्यों के साथ टीवी मीडिया के समक्ष नही रख पाते या फिर समाचार अथवा कार्यक्रम के अनुसार चलचित्र, विजुअल यानि ऑडियो-वीडियो नही मिल पाते तो समाचार को प्रसारित करना किसी भी टीवी चैनल के लिये मुश्किल हो जाता है।
समय की कमी है इसलिये संक्षेप में मनोरंजन टीवी चैनल्स की अगर बात की जाये तो वहां भी बालिका एंव महिला अधिकारों, शिक्षा और शोषण जैसे विषयों पर कई कार्यक्रम अथाव धारावाहिक जिन्हे हम सीरियल भी कहते हैं, प्रसारित हो रहे हैं। इनमें सबसे बड़ा उदहारण है कि कलर्स टीवी पर प्रसारित होने वाला धारावाहिक बालिका वधु जिसकी नायिका आनंदी खुद बाल विवाह का शिकार होने के बाद हिम्मत से काम लेती है और फिर दूसरी बालिकाओं को बाल विवाह से बचाकर शिक्षा की राह पर चलाती है। सामाजिक कुरितियों को विरोध भी इस टीवी सीरियल में दिखता है। ज़ी के नये मनोरंजन चैनल ज़िन्दगी पर भी कितनी गिरहें बाकी हैं.... नामक एक पाकिस्तानी सीरियल का प्रसारण हो रहा है जो बालिकाओं और महिलाओं के साथ होने वाले घरेलू और सामाजिक अत्याचारों को उजागर करने का काम कर रहा है। इसी तरह से देश के तमाम मनोरंजन चैनल बालिका अधिकारों पर आधारित कार्यक्रमों का प्रसारण कर रहे हैं।
अंत में एक बार फिर से इस बात पर ज़ोर देना चाहता हूँ कि बालिका और महिला अधिकारों और उनकी शिक्षा से जुड़े मुद्दों को मीडिया के सामने मज़बूत तथ्यों के साथ पेश किया जाना चाहिये ताकि समाचार प्रसारित करने वाले चैनल के लोग आपके कार्यक्रम या समाचार का चुनाव प्रसारण के लिये कर सकें। क्योंकि भारत ही नही बल्कि पूरे विश्व में लोगों को अपनी बात समझाने का सबसे सरल तरीका टेलीविज़न है। मैं एक बार फिर से अपने संगठन स्मार्ट एजुकेशन एण्ड वैलफेयर एसोसिएशन सेवाऔर परवेज़ सागर फॉउन्डेशन की और से आभार जताना चाहूँगा गार्ड़न ऑफ होप संस्था और उनके सभी सहयोगियों को जिन्होने एक संवेदनशील मुद्दे को लेकर भारत में ये सफल और सार्थक आयोजन किया। और मुझे अवसर दिया कि मैं अपनी बात आप जैसे सुधीजनों के बीच रख सकूँ। बहुत-बहुत धन्यवाद.... शुक्रिया।
जय हिन्द।
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परवेज़ सागर

Friday, September 12, 2014

सपा-भाजपा ने उपचुनाव में झोंक दी पूरी ताकत

लखनऊ ( परवेज़ सागर )। उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनावों के बाद एक बार फिर SP और BJP उपचुनाव में आमने-सामने है। समाजवादी पार्टी ने एक लोकसभा और 11 विधान सभा सीटों पर जीत हासिल करने के लिये पूरी ताकत लगा दी है। उधर, BJP भी इस चुनाव में अधिक से अधिक सीटों को बचाने के लिये कमर कस ली है। गौरतलब है कि यूपी की जिन विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हो रहा है वो सभी BJP के पास थी। इस चुनाव के लिये गुरुवार की शाम चुनाव प्रचार थम जाएगा।
सूबे में एक बार फिर से चुनावी बिसात बिछ गयी है। यहां 13 सितम्बर को मैनपुरी लोकसभा और 11 विधान सभा सीटों पर मत डाले जायेंगे। इस उपचुनाव के लिये SP और BJP के अलावा कांग्रेस ने भी अपने उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं। मैनपुरी और आज़मगढ़ लोक सभा सीटों से SP मुखिया मुलायम सिंह यादव ने जीत हासिल की थी। बाद में आज़मगढ़ से ही सांसद बने रहने का फैसला किया था तभी से ये सीट खाली थी। इस सीट से उन्हीं के परिवार के तेज प्रताप यादव किस्मत आज़मा रहे हैं। BJP के 11 विधायकों के सांसद बन जाने से खाली हुई सीटों पर SP और BJP के बीच कड़ा मुकाबला माना जा रहा है। हालाकि SP अपनी जीत को लेकर आश्वस्त नज़र आ रही है।
उपचुनाव में जिन सीटों पर चुनाव होना है उनमें कैराना, सिराथू, चरखारी, सहारनपुर नगर,  ठाकुरद्वारा,  बलहा,  नोएडा,  लखनऊ पूर्वी, बिजनौर,  निघासन और हमीरपुर विधान सभा सीट शामिल हैं। इन सभी सीटों पर 2012 के विधान सभा चुनाव में BJP के उम्मीदवारों ने जीत का परचम लहराया था। पार्टी उपचुनाव में भी इन सीटों को फिर से हासिल करना चाहती है। केन्द्र में सरकार आ जाने से BJP नेताओं के हौसले बुलंद हैं। इसलिये वो उपचुनाव में भी जीत का दावा कर रहे हैं।
इस उपचुनाव में BSP ने कोई उम्मीदवार नहीं उतारा है लेकिन कांग्रेस सभी विधान सभा सीटों पर चुनाव लड़ रही है। कांग्रेस के UP प्रभारी मधुसूदन मिस्त्री और PCC अध्यक्ष निर्मल खत्री खुद चुनाव की कमान संभाल रहे हैं। कांग्रेस भी करीब तीन विधान सभा सीटों पर अपनी जीत का दावा कर रही है।
कांग्रेस नेता जो भी दावा करें लेकिन इस उपचुनाव में उनकी पार्टी का वजूद कहीं नज़र नहीं आ रहा है। लेकिन BJP एक बार फिर से उपचुनाव में विकास और कानून व्यवस्था को मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ने की बात कर रही है। उधर, समाजवादी पार्टी अपनी सरकार की उपलब्धियों और जनहित योजनाओं को जनता के बीच रखकर वोट मांग रही है। SP, BJP को साम्प्रदायिक दल बताकर जनता से आपसी भाईचारे को मजबूत करने की अपील भी कर कर रही है।

Wednesday, August 20, 2014

जंग-ए-आज़ादी में अहम मुकाम है लखनऊ का

परवेज़ सागर।
देश की आजादी के लिए लड़ी गई जंग में लखनऊ शहर की अहम भूमिका रही है। यहां जंग-ए-आज़ादी में कई नवाबों और स्वतंत्रता सेनानियों ने अपना योगदान दिया। सबसे अहम बात है कि अवध के नवाबों के साथ-साथ उनकी मलिकाओं ने भी अंग्रेजों से लडाई लड़ी।
तहज़ीब और अदब का शहर लखनऊ। इस शहर में कई ऐसी निशानियां मौजूद हैं जो जंग-ए-आजादी की गवाह हैं। रेजीडेन्सी हो या फिर बेगम हजरत महल पार्क, बड़ा इमाम बाड़ा हो या फिर कैसरबाग ये सभी वो जगह हैं, जहां 1856 के बाद से ही कई बार आजादी के दिवानों और अंग्रेजों के बीच आर-पार की लड़ाई हुई।
स्वतंत्रता आंदोलन की अलख जलते ही उसकी आग लखनऊ पहुंच गई थी। उस वक्त अवध के शासक नवाब वाजिद अली शाह ने अंग्रेजों के सामने घुटने टेकने से मना कर दिया था। जिसके बाद अंग्रेज आपा खो बैठे और कई आन्दोलनकारियों को अपना बलिदान करना पड़ा।
अवध में जब आजादी के दिवानों ने अंग्रेजी हुकुमत की खिलाफत शुरू की तो उन पर अत्याचार भी बढ़ने लगे। इस दौरान आजाद भारत की मांग बढ़ते देख अंग्रेजों ने लखनऊ के कैसरबाग पर हमला किया था। जिसमें कई लोगों ने अपना बलिदान दिया। अंग्रेजों की ताकत बढ़ती देख नवाब वाजिद अली शाह की पत्नी बेगम हजरत महल भी इस जंग में कूद पड़ी। नवाब साहब को लखनऊ छोड़ना पड़ा तो उनकी गैर मौजूदगी में बेगम हजरत महल ने कमान संभाल ली।
1856 से शुरू हुआ सिलसिला बहुत आगे तक बढ़ गया। बहादुर शाह जफर के बाद उनके कई वारिस इस लड़ाई में कूद पड़े। रानी लक्ष्मी बाई और तांत्या टोपे ने भी लखनऊ में चल रहे आन्दोलन को अपना समर्थन दिया था। उन्होंने बेगम हजरत महल के हौसले की तारीफ की थी।
जंग-ए-आज़ादी के दौरान अंग्रेजों ने लखनऊ की कई ऐसी आलीशान इमारतों को उड़ा दिया जो यहां की सांस्कृतिक विरासत मानी जाती थी। एक दौर ऐसा भी आया कि अंग्रेजों ने बड़े इमाम बाड़े को छावनी में तब्दील कर दिया था। देश आजाद हो जाने के बाद भी इस शहर में आज ऐसी कई निशानियां बाकी हैं जो गुजरे हुए कल की याद दिलाती हैं। आज यहां के लोग उन किस्सों को बयां करते हैं जो जंग-ए-आजादी के दौरान यहां गुजरे थे। आजादी की लड़ाई के इतिहास में अवध की शान लखनऊ का योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकेगा।