Friday, December 25, 2009

MERRY CHRISTMAS



WISH



YOU



MERRY



CHRISTMAS

Monday, November 9, 2009

महंगाई को लेकर बवाल

मौहब्बत का शहर का आगरा आज दिन भर दहला रहा। बढती महंगाई के विरोध को लेकर शहर मे जो चिन्गारी दो दिन पहले भड़की थी। आज वो शोला बन गयी। शुरुआत शहर के जीवनी मण्डी चौराहे से हुई जहां स्थानीय लोगों महंगाई का विरोध जताने के लिये सड़को पर उतर आये। जाम लगा दिया गया। पुलिस ने समझाने की कोशिश की तो भीड़ ने उग्र होकर पथराव शुरु कर दिया। वाहनों मे आग लगा दी गयी। पुलिस को मजबूर होकर फायरिंग करनी पड़ी। भगदड़ और फायरिंग मे दर्जनों लोग जख्मी हो गये। दूसरी तरफ खन्दारी चौराहे पर हाइवे को महिलाओं ने जाम कर दिया। उनका हौंसला बढाने के लिये भाजपा के कार्यकर्ता भी आ गये। यहां भी हालात बेकाबू होते देख पुलिस को लॉठीचार्ज करना पड़ा। दोनों जगह घण्टो तनाव की स्थिति बनी रही। भारी पुलिस बल तैनात किया गया है। लेकिन एक सवाल मेरे सामने है कि क्या ये विरोध यहीं खत्म हो जायेगा? मुझे लगता है कि ये शुरुआत है आज आगरा है तो कल दिल्ली के लोग भी महंगाई का विरोध करने को सड़कों पर आ सकते हैं... और परसों लखनऊ के। इसके पीछे बढती कीमतों पर सरकार का नियंत्रण खोना ही सबसे बड़ी वजह मुझे नजर आती है। विरोध करने वालों को तो गोली और लॉठी से रोका जा सकता है लेकिन उनके विचारों को मार पाना किसी सरकार के बस मे नही है। महंगाई का विरोध भी एक विचार बन गया है। और ये फैल रहा है जब लोग आगरा मे हुये बवाल की ख़बर देख या पढ रहें होगें तो ये विचार खुद-ब-खुद उनके मन मे आ सकता है। कहने का मतलब है कि ताकत का इस्तेमाल कर विरोध या लोगों को रोका जा सकता है। लेकिन परेशानी से उबरे मानसिक विरोध और विचार को रोकने का तरीका केवल एक है वो है कीमतों पर काबू पाना। कितनी मज़ाकिया बात लगती है रोज़ ये ख़बर पढना की महंगाई की दर कम हो रही है लेकिन हकीकत बिल्कुल उसके उलट है। दाल, सब्ज़ी और घरेलू ज़रुरत के सामान के दाम आसमान छू रहे हैं कीमते आम आदमी की हद से बाहर हो रही है। तो लोग क्या करें? किस से कहें? कहीं सुनवाई नही होती तो नतीजा ऐसे हिंसक विरोध के रुप मे सामने आता है। ज़रुरत इस बात की है कि सरकार इस बात पर ध्यान दे और महंगाई को कम करने की दवा ढूंढे। नही तो ये आग आगरा ही पूरे देश मे फैल जायेगी।

Tuesday, October 27, 2009

बदल जायेगी इंटरनेट की दुनिया

इंटरनेट की नियामक संस्था आईसीएएनएन के मुताबिक इंटरनेट अपने अस्तित्व के बाद के सबसे बड़े बदलाव के कगार पर है। चालीस वर्ष पहले इंटरनेट अस्तित्व में आया था और अब पहली बार इंटरनेट पर टाइप किए जाने वाले पते या वेब एड्रेस के अक्षर लैटिन से अलग लिपि में होंगे। यह प्रस्ताव 2008 में स्वीकार किया गया था जिसके तहत डोमेन नाम इत्यादि एशियाई, अरबी और अन्य लिपियों में भी रखे जा सकेंगे।
इंटरनेट कोआपरेशन फॉर एसाइन्ड नेम्स एंड नंबर्स (आईसीएएनएन) के अनुसार इस प्रस्ताव को अंतिम रुप 30 अक्तूबर को दिया जाएगा और गैर लातिन लिपि में पहला कार्य 16 नवंबर को शुरु होगा। दक्षिण कोरिया में आईसीएएनएन के अध्यक्ष रॉड बेकस्ट्राम ने संगठन के एक सम्मेलन में बताया कि ये अंतरराष्ट्रीय डोमेन नाम अगले साल के मध्य से काम करना शुरु कर देंगे। उनके मुताबिक ‘‘ आज दुनिया भर में क़रीब डेढ़ अरब लोग इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं लेकिन इनमें से आधे लोग ऐसी भाषा बोलते हैं जिसकी लिपि लैटिन नहीं है।’’ बैकस्ट्राम कहते हैं, ‘‘ दुनिया में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों के लिए यह बदलाव बेहद ज़रुरी है ताकि भविष्य में भी इंटरनेट का विस्तार हो सक।’’ इस बदलाव को लागू करने के लिए बने बोर्ड के चेयरमैन पीटर डेनगेट थ्रस का कहना था कि योजना 2008 में पारित हुई थी लेकिन इसके लिए सिस्टम के परीक्षणों में काफ़ी समय लगा है। उनका कहना था कि ‘‘आपको इसकी तारफ़ी करते नहीं थकेंगे कि यह कितना जटिल काम है। हमने एक बिल्कुल अलग अनुवाद की प्रणाली बना दी है।’’ थाईलैंड और चीन में इस तकनीक का इस्तेमाल कर उनकी भाषा में आईपी एड्रेस तैयार होते हैं लेकिन इन्हें अभी तक अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त नहीं है। (bbcindi.com)

Friday, October 16, 2009

दीपोत्सव की शुभकामनाऐं


आपके यहां

धन की बरसात हो

सुख-शान्ति का निवास हो

माँ लक्ष्मी का आर्शीवाद हो

आपके संकटों का विनाश हो

आपको और आपके परिवार को

दीपावली की हार्दिक शुभकानाऐं।

Monday, October 12, 2009

सरहद पार के दो मेहमान....

पाकिस्तान की दो महिला रॉकस्टार ज़ेब और हनिया पिछले दिनों हिन्दुस्तान आईं। दोनों बीबीसी के दिल्ली दफ़्तर पँहुची तो दोनों ओर के संगीत, सियासत और संबंधों पर बातचीत का सिलसिला चल निकला. बीबीसी के वरिष्ठ संवाददाता पनीनी आनन्द ने इन दोनों से बातचीत की। आपके लिये यहां पेश हैं इसी बात-चीत के कुछ अंश-

Monday, September 28, 2009

इतने राम कहां से लाऊँ...


किस रावण की भुजा उखाडूँ...

किस लंका को आग लगाऊँ।

घर घर रावण, घर घर लंका...

इतने राम कहां से लाऊँ।।

विजयदशमी की शुभकामनाएं

Sunday, September 13, 2009

आदमी को भी मयस्सर नहीं इन्सां होना


बस कि दुश्‍वार है हर इक काम का आसां होना,
आदमी को भी मयस्सर नहीं इन्सां होना
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गिरिया चाहे है ख़राबी मेरे काशाने की,
दर-ओ-दीवार से टपके है बयाबां होना
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वा-ए-दीवानगी-ए-शौक़ कि हर दम मुझको,
आप जाना उधर और आप ही हैरां होना
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जलवा अज़_बस कि तक़ाज़ा-ए-निगाह करता है,
जौहर-ए-आईना भी चाहे है मिज़ग़ां होना
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इशरत-ए-क़त्लगाह-ए-अहल-ए-तमन्ना मत पूछ,
ईद-ए-नज़्ज़ारा है शमशीर का उरियां होना

Sunday, September 6, 2009

वो रुला कर हंस ना पाया देर तक...

वो रुला कर हंस ना पाया देर तक,

जब मैं रोकर मुस्कुराया देर तक।

भूखे बच्चों की तसल्ली के लिये,

माँ ने फिर पानी पकाया देर तक।

ना-अखलाक बेटे तो सर दर्द बने,

बेटियों ने सर दबाया देर तक।

गुनगुनाता जा रहा था एक फकीर,

धूप रहती है ना साया देर तक।

Tuesday, September 1, 2009

सबको लुभाता है आगरा का पेठा

बेपनाह मौहब्बत की अनमोल निशानी ताजमहल की वजह से आगरा शहर पूरी दुनिया मे जाना जाता है। ताजमहल की खूबसूरती इस शहर के लिये वरदान है। लेकिन आगरा मे एक ओर चीज़ है जिसकी मिठास यहां आने वालों को लबरेज़ कर देती है, वो है यहां का पेठा। यूँ तो पेठा महाराष्ट्र, चैन्नई और राजस्थान के कई शहरों मे भी बनता है। लेकिन आगरा का पेठा भारत ही नही बल्कि पूरी दुनिया में अपने स्वाद के लिये जाना जाता है। आगरा मे बनने वाले पेठे की इतनी किस्में है कि खाने वाले के लिये ये तय करना मुश्किल हो जाता है कि कौन सा पेठा लिया जाये।
पेठे की शुरुआत आगरा मे मुगल काल मे हुई थी और तब से लेकर आज तक इसकी मिठास में कमी नही आयी। आगरा में रहने वाले लोगों की आबादी का एक बड़ा हिस्सा इस पेठे के कारोबार से जुड़ा हुआ है। पेठा उघोग एसोसिएशन के मुताबिक आगरा में लगभग 10,000 लोग इस कारोबार का हिस्सा हैं। शहर के नूरी दरवाज़ा, गुड़ की मण्ड़ी, फुलट्टी बाज़ार और पेठा गली इलाके मे ये काम बहुतायत से होता है। यहां से पेठा देश के कोने-कोने मे भेजा जाता है। शहर मे पंछी पेठा, भीमसैन बैजनाथ पेठा और गोपालदास पेठा के नाम प्रमुख हैं। इनके द्वारा बनाये गये पेठे की मांग देशभर मे रहती है। पेठे बनाने के लिये कच्चे फल पेठे की ज़रुरत पड़ती है। इसे अंग्रेजी मे पम्पकिन कहते हैं। ये फल तरबूजे के आकार का होता है। एक फल का वजन एक किलो से तीस किलो तक होता है। सात-आठ किलो कच्चे फल से करीब पांच किलो पेठा तैयार हो जाता है। आगरा मे करीब 23 आढ़त व्यापारी हैं जो इस कच्चे फल की सप्लाई शहर मे करते हैं। हर सीजन मे इसकी खेती अलग इलाकों मे होती है। गर्मियों मे बरेली, सांकड़ा और कार्तिक के महीनें मे कानपुर, इटावा, औरेय्या और मैनपुरी जिलों मे इसकी खेती की जाती है।
आगरा मे हर रोज़ डेढ़ कुन्तल पेठा बनाने के लिये तकरीबन 100 किलो चीनी, 1200 लीटर पानी और 2 कुन्तल कोयले की खपत होती है। पहले केवल सादा पेठा बनाया जाता था। लेकिन अब इसकी कई किस्में बनने लगी हैं। जिसमें गिरी पेठा, केसर पेठा, अंगूरी पेठा, चैरी पेठा, रसबरी, चॉकलेट पेठा, गुलाब लड़डू, सैंड़विच पेठा और पान पेठा खास है। इनमें सबसे महंगा पान पेठा होता है जिसकी कीमत 180 से लेकर 220 रुपये प्रति किलो तक होती है। यह पेठा केवल एक-दो दिन रखा जा सकता है जबकि सादा पेठा 15 से 20 दिन तक रखा जा सकता है। पंछी पेठा के मैनेजर अखिलेश के मुताबिक खांड़ का पेठा केवल आगरा मे ही बनता है। यह काफी ठण्डा और पीलिया जैसे गम्भीर रोग के लिये फायदेमंद होता है। खांड से बना पेठा मांग पर विदेशों तक भेजा जाता है। उनके मुताबिक पेठे की सबसे बड़ी खासयित यह है कि इसमे किसी प्रकार की मिलावट नही होती।
कैसे बनता है पेठा-
सबसे पहले कच्चे फल को काटकर बीज निकाले जाते हैं और लकड़ी के गुटकों से गुदे की गुदाई की जाती है। फिर चूने के पानी से उसका कसैलापन दूर किया जाता है। इस काम मे पानी का भारी मात्रा मे प्रयोग होता है। उसके बाद गुदे के पीस करके कोयले की भट्टी पर एक बड़ी सी कढाई मे उसे उबलने के लिये रख दिया जाता है। पेठे को कई आकार देने के लिये टीन की डाईयों का इस्तेमाल किया जाता है। उसकी अशुद्धि निकालने के लिये फिटकरी और हैट्रो मसाले का प्रयोग किया जाता है। उसके बाद उबले हुये पेठे को चीनी या खांड की चासनी मे छोड़ दिया जाता है। चासनी अन्दर तक पेठे मे अपनी जगह बना लेती है। ठंडा होने पर पेठा तैयार हो जाता है।

Wednesday, August 26, 2009

सर उतार देतें हैं....


अमीर-ए-शहर की

मेहरबानियों पे ना जा,

ये सर का बोझ नही,

सर उतार देतें हैं

Sunday, August 23, 2009

ज़माना करवट बदल रहा है


तुम ना बदलो ज़माना बदल रहा है,

गुलाब पत्थर पर उग रहा है,

चराग़ आंधियों मे जल रहा है...

नये चरागों को हौंसला दो,

ज़माना करवट बदल रहा है।

Tuesday, August 4, 2009

ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है, बढ़ता है तो....


ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है, बढ़ता है तो मिट जाता है
ख़ून फिर ख़ून है, टपकेगा तो जम जायेगा

ख़ाक़-ए-सहरा पे जमे या कफ़-ए-क़ातिल पे जमे
फ़र्क़-ए-इन्साफ़ पे या पा-ए-सलासल पे जमे

तेग़-ए-बेदाद पे या लाशा-ए-बिस्मिल पे जमे
ख़ून फिर ख़ून है, टपकेगा तो जम जायेगा

Thursday, June 25, 2009

ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं....



जी में आता है ये मुर्दा चांद तारे नोच लूं,

इस किनारे नोच लूं और उस किनारे नोच लूं।

एक दो का ज़िक्र क्या सारे के सारे नोच लूं,

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूं ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं....

Tuesday, June 23, 2009

Khwaja Gharib Nawaz- SYMBOL OF LOVE, HARMONY & PEACE

The 797th urs (Death Anniversary) of Hazrat Khwaja Moinuddin Hasan Chishty (R.A) known as Gharib Nawaz (R.A) will be held from 1st to 6th RAZAB corresponding to :- 25th to 30th of june 2009 (depending upon the visibility of Moon). Inspired by the spiritual command of the PROPHET MOHAMMAD (S.A.W), Huzoor Khwaja Gharib Nawaz (R.A) became the harbinger of peace and prosperity not only in India but in the whole world and people use to attend the shrine of Gharib Nawaz (R.A) with their heartfelt desire and cherished wishes and return used to go brimful with fruition of their inner aspiration.
SYMBOL OF LOVE, HARMONY AND PEACE
In his temperament as in the circumstance of his life Khwaja Sahib was destined for an extra ordinary career.Into a tottering civilization, fraught with material acquisition, which guaranteed no safety to human life and which conferred no spiritual freedom on human beings he burst forth all the masterful force of his personality, There is a complete blending of greatness and grace, mediation and action precept, practice, indifference of the mystic and idealism of a Saint. He is a SYMBOL OF LOVE, HARMONY AND PEACE. The sources of this power may be traced to his own exceptional endowments.Throughout his life, he exhibited the noble traits of character so peculiar to the house of Prophet Mohammed (S.A.W) to which he belonged.His Shrine in Ajmer sharif is an important religious institution which for centuries has been attracting pilgrims from all over the world, irrespective of caste and creed. It is a symbol of humanity, national and emotional integration in the whole world. He interpreted the true Islamic message of love for mankind and through that the love for the Almighty Allah. He preached the Message of Islam, the message of the unity of religion and worked out its potentialities for the whole humanity.He laid the foundation of the liberal Chishtya order of sufis in India, and inspired millions of souls to be his followers and thus enlightened the masses of the Indian Sub-continent with the divine knowledge.

Thursday, June 11, 2009

फीका पड़ता ताजमहल का हुस्न

बेपनाह मौहब्बत की निशानी ताजमहल का हुस्न फीका पड़ता जा रहा है। पिछले कई सालों से इतिहासकार और विशेषज्ञ इस बात को लेकर चिन्ता जता रहे हैं कि ताजमहल की सफेद रंगत को प्रदूषण से भारी नुकसान हो रहा है। इसकी सबसे बड़ी वजह वायु प्रदूषण है। भारत सरकार और सुप्रीम कोर्ट की मॉनिटरिंग कमैटी ने भी इस बात पर चिन्ता ज़ाहिर की है लेकिन भारतीय पुरातत्व सर्वेषण (एएसआई) और आगरा का जिला प्रशासन इस तरफ से आंखे बन्द किये बैठा है। रही बात आगरा विकास प्राधिकरण की तो उनके लिये ताजमहल सिर्फ सोने के अण्डे देने वाली मुर्गी है। प्राधिकरण को पथकर के नाम पर होने वाली कमाई से मतलब है ताज के संरक्षण से नही।
गौरतलब है कि विशेषज्ञों ने सुप्रीम कोर्ट को दी गयी अपनी विस्तृत रिर्पोट में इस बात का खुलासा बहुत पहले ही कर दिया था। जिसको गम्भीरता से लेते हुये उच्चतम न्यायलय ने आगरा प्रशासन और एएसआई को सख्त कदम उठाने के आदेश दिये थे। लेकिन कुछ समय बाद ही वो आदेश हवा हो गये। इनमे सबसे महत्वपूर्ण आदेश था आगरा को निर्बाध बिजली आपूर्ति। क्योंकि बिजली कटौती की दशा मे ताजमहल के आस-पास सैंकड़ो जेनरेटर चलते हैं और उनसे निकलने वाला काला धुंआ इसके लिये सबसे बड़ा नासूर है। इस आदेश का पालन तो उत्तर प्रदेश सरकार कभी नही कर पायी लेकिन हर साल सुप्रीम कोर्ट में आगरा को बिजली कटौती से मुक्त रखकर चौबीस घण्टे आपूर्ति किये जाने का झूठा हलफनामा ज़रुर दिया जाता रहा है। कितनी चौंकाने वाली बात है कि समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट की मॉनिटरिंग कमैटी के सदस्य आगरा आते हैं और हमेशा उनके सामने इस समस्या को भी उठाया जाता रहा है। लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात।
प्रदेश के उर्जा मंत्री रामवीर उपाध्याय ने अपनी पत्नी को फतेहपुर सीकरी से लोकसभा चुनाव लड़वाने के लिये एक साल पहले ही आगरा मे अपना आवास बना लिया था। उनका एक पांव लखनऊ तो दूसरा पांव आगरा मे है लेकिन उन्हे भी ताजमहल की सुध नही। ताजमहल की वजह से देश और प्रदेश की सरकार को करोड़ो रुपये की आमदनी होती है। हजारों परिवार ताजमहल की बदौलत अपना रोज़गार चला रहे हैं। इन सबके के लिये ताज केवल कमाई का ज़रिया बनकर रह गया है। बात ये है कि जब सरकार और प्रशासन को ही इस बात की फिक्र नही तो आम आदमी का इस बात से क्या सरोकार।
लेकिन अब सवाल उठता है कि अगर ताजमहल और उसकी खूबसूरती ही सुरक्षित नही रहेगी तो सरकार को करोड़ो रुपये की आमदनी और हज़ारों परिवारों के चुल्हे कैसे जलेगें। पर्यटकों की आमद पर भी इस बात खासा असर पड़ सकता है। ये गम्भीर समस्या आज नही तो कल सुप्रीम कोर्ट के सामने आ ही जायेगी तब भी सरकार कोई नया बहाना बनाकर अपनी जान छुड़ा लेगी लेकिन ताजमहल को जो नुकसान हो रहा है उसकी भरपाई शायद ही सरकार या कोई विभाग कर पायेगा। और हो सकता है एक दिन ऐसा भी आये जब ताज की सफेद खूबसूरती केवल इतिहास के पन्नों और कहानियों मे कुछ शब्द बनकर रह जाये।

Tuesday, June 9, 2009

Cold Drink Can or Death?

This is Serious! This incident happened recently in North Texas . A woman went boating one Sunday taking with her some cans of coke which she put into the refrigerator of the boat. On Monday she was taken to the hospital and placed in the Intensive Care Unit. She died on Wednesday. The autopsy concluded she died of Leptospirosis.. This was traced to the can of coke she drank from, not using a glass. Tests showed that the can was infected by dried rat urine and hence the disease Leptospirosis. Rat urine contains toxic and deathly substances..... It is highly recommended to thoroughly wash the upper part of all soda cans before drinking out of them. The cans are typically stocked in warehouses and transported straight to the shops without being cleaned.. A study at NYCU showed that the tops of all soda cans are more contaminated than public toilets (i.e).. full of germs and bacteria. So wash them with water before putting them to the mouth to avoid any kind of fatal accident.

Sunday, May 31, 2009

आज का स्ट्रीगंर- पत्रकार या.....?

"स्ट्रीगंर" आम आदमी के लिये ये नया या अन्जान शब्द हो सकता है। लेकिन पत्रकारिता से वास्ता रखने वालों के लिये ये शब्द आम है। पत्रकारिता के 13 सालों के दौरान मैं भी दो बार स्ट्रीगंर रहा। लेकिन उस वक्त और आज मे बड़ा फर्क आ गया है। पत्रकारिता की आधुनिकता के इस दौर मे स्ट्रीगंर के मायने बदलते जा रहे हैं। जो लोग इसके बारे मे नही जानते उन्हें बताना ज़रुरी हो जाता है कि आजकल पत्रकारिता की दुनिया मे स्ट्रीगंर ख़बर पाने का एक सस्ता सुलभ ज़रिया है। इसलिये अब हर शहर मे हर चैनल का स्ट्रीगंर मौजूद है। देश के कई न्यूज़ चैनल तो स्ट्रीगंरर्स की बदौलत ही चल रहे हैं। किसी भी शहर मे कोई घटना हो तो तुरन्त स्ट्रीगंर उसे अपने हैंडीकैम से कवर करके न्यूज़ चैनल को भेज देता है। स्ट्रीगंर मतलब वो पत्रकार जिसका चैनल या कम्पनी से सीधे कोई ताल्लुक नही होता बस ख़बर दो उसके बदले पैसा लो, जितनी ख़बरें उतना पैसा। पहले इन्हे माइक आईड़ी तक नसीब नही होती थी। पर अब लगभग सभी चैनल अपने स्ट्रीगंर को माइक आईड़ी देने लगे हैं और उनके साथ सालभर का एग्रीमेन्ट भी किया जाने लगा है।
न्यूज़ चैनलों की बढती तादाद के चलते आजकल हर शहर मे इलेक्ट्रोनिक मीडिया की बाढ़ सी आ गयी है। हालात ये है कि अगर कहीं कोई प्रेसवार्ता या अन्य कोई आयोजन हो रहा हो तो वहां तमाम माईक आईड़ी और टीवी पत्रकार दिखाई देगें जिनमे से शायद कईयों को पत्रकारिता के मायने तक मालूम ना हो। जिनका पत्रकारिता से दूर-दूर तक कोई लेना देना नही है वो भी स्ट्रीगंर बन रहे हैं या बनना चाहते हैं। ऐसे चैनलों की भी कमी नही है जो स्ट्रीगंर बनाने के लिये ज़मानत राशि के नाम पर मोटी रकम बटोर रहे हैं। नतीजा ये कि कई पूंजीपति अपना रुतबा और रोब बनाने की खातिर अपने बच्चों को पत्रकार बनाने के ख्वाब पाल रहे हैं या उन्हे पत्रकार बनाने मे जुटे हैं। इस सारी कवायद के चलते सबसे बड़ा नुकसान पत्रकारिता को हो रहा है। उसके बाद पेशेवर पत्रकारों कों। स्ट्रीगंर के रुप मे ऐसे लोग बड़ी संख्या मे पत्रकारिता करने उतर आयें हैं जो समाज मे बदनाम है या अपराधी हैं। जो केवल खुद के बचाने के लिये या फिर असामाजिक कामों को अन्जाम देने के लिये स्ट्रीगंर बनकर पत्रकार बन जाना चाहतें हैं। मुझे आज तक मे काम करते वक्त उत्तर भारत के कई शहरो में ख़बरों के लिये भेजा जाता रहा। मैं जहां भी गया एक बात समान थी कि हर शहर मे स्ट्रीगंरर्स की एक बड़ी जमात खड़ी हो गयी है। और उसमे ऐसे लोगों की तादाद ज़्यादा है जो शायद हिन्दी मे अपना नाम भी ठीक से ना लिख पाते हों लेकिन हाथ मे किसी चैनल का माईक आईड़ी और मुंह मे गुटखा बस बन गये पत्रकार। खासकर ये अधिकारियों या बड़े नेताओं के इर्द-गिर्द मन्ड़राते नज़र आते हैं। इस बात से वो सभी पत्रकार सहमत होगें जो लम्बे समय से पत्रकारिता करते आयें है और आज किसी चैनल के स्ट्रीगंर या रिपोर्टर है। उन्हे भी इन तथाकथित पत्रकारों की वजह से परेशानी का सामना करना पड़ता है। आज की तारीख मे अगर आप किसी बड़े नेता या अधिकारी से मुलाकात करने जायें तो उसका लहज़ा आपके साथ व्यंगात्मक हो सकता है। जिसकी वजह केवल वो स्ट्रीगंर हैं जो पत्राकरिता की आड़ मे अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। बहुत जल्द कामयाब हो जाने की लालसा भी उन लोगों को बहका रही है जो स्ट्रीगंर बनकर दूसरे रास्तों से पैसे कमाने की फिराक मे बैठें है। चैनल वाले पैसे दें या ना दें। बस स्ट्रीगंर बन जाने की होड़ सी लगी है। मेरे सामने एक या दो नही ऐसे कई उदहारण है जो इन सब बातों की पुष्टि करते हैं। ये सब लिखने का मकसद किसी की भावनाओं को ठेस पंहुचाना नही है बल्कि उन लोगों को आईना दिखाना है जो आंख बन्द कर के स्ट्रीगंर बनाने का काम कर रहे हैं। हो सकता है मेरे खुद के कुछ साथी मेरी बात से सहमत ना हो लेकिन जो आजकल मुझे जो दिख रहा है उसे देखकर तो ये ही लगता है कि आने वाले वक्त मे पत्रकारिता और पत्रकारों से आम लोगों को बचा-खुचा भरोसा भी उठ जायेगा। समाज मे ज़रुरत ऐसे स्ट्रीगंरर्स की है जो पत्रकार हो या पत्राकरिता की ज़िम्मेदारी को समझे। हमारी अपील है स्ट्रीगंर बनाने वाले और बनने वालों से कि अब बस.....।

Tuesday, May 26, 2009

ये देवबन्द या वो देवबन्द.....?

हाल ही में पाकिस्तान से एक वरिष्ठ पत्रकार जनाब वुसतुल्लाह ख़ान भारत की यात्रा पर आये और उन्होने अपनी यात्रा के दो दिन यूपी के (सहारनपुर) कस्बा देवबन्द मे बिताये। उनका अनुभव यहां कैसा रहा उन्होने लौट जाने के बाद उसे शब्दों की शक्ल दी। उनका लेख बीबीसी के पोर्टल पर प्रकाशित हुआ। पढकर अच्छा लगा इसलिये आपके लिये यहां पोस्ट कर रहा हूँ। उम्मीद है आपको भी पसन्द आयेगा वुसतुल्लाह ख़ान साहब का ये लेख:-
मैंने पिछले हफ़्ते दो दिन उत्तर प्रदेश के क़स्बे देवबंद में गुज़ारे। वही देवबंद जिसने पिछले डेढ़ सौ वर्षों में हज़ारों बड़े-बड़े सुन्नी उलेमा पैदा किए और जिनके लाखों शागिर्द भारतीय उप-महाद्वीप और दुनिया के कोने-कोने में फैले हुए हैं। आज भी दारुल-उलूम देवबंद से हर साल लगभग चौदह सौ छात्र आलिम बन कर निकलते हैं। देवबंद, जिसकी एक लाख से ज़्यादा जनसंख्या में मुसलमान 60 प्रतिशत हैं।
वहाँ पहुँचने से पहले मेरी ये परिकल्पना थी कि ये बड़ा सूखा सा क़स्बा होगा, जहाँ उलेमा की तानाशाही होगी और उनकी ज़ुबान से निकला हुआ एक-एक शब्द इस इलाक़े की मुस्लिम आबादी के लिए अंतिम आदेश का दर्जा रखता होगा, जहाँ संगीत के बारे में गुफ़्तगू तक हराम होगी, हिंदू और मुसलमान एक दूसरे को दूर-दूर से हाथ जोड़ कर गुज़र जाते होंगे, वहाँ किसी की हिम्मत नहीं होगी कि बग़ैर किसी डाँट-फटकार के बिना दाढ़ी या टख़नों से ऊँचे पाजामे के बिना वहाँ बसे रह सकें। देवबंद में मुसलमान मुहल्लों में अज़ान की आवाज़ सुनते ही दुकानों के शटर गिर जाते होंगे और सफ़ेद टोपी, कुर्ता-पाजामा पहने दाढ़ी वाले नौजवान डंडा घुमाते हुए ये सुनिश्चित कर रहे होंगे कि कौन मस्जिद की ओर नहीं जा रहा है। इसीलिए जब मैंने सफ़ेद कपड़ों में दाढ़ी वाले कुछ नौजवानों को देवबंद के मदरसे के पास एक नाई की दुकान पर शांति से अख़बार पढ़ते देखा तो फ़्लैशबैक मुझे उस मलबे के ढेर की ओर ले गया जो कभी हज्जाम की दुकान हुआ करता था। जब मैंने टोपी बेचने वाले एक दुकानदार के बराबर एक म्यूज़िक शॉप को देखा जिसमें बॉलीवुड मसाला और उलेमा के भाषण और उपदेश पर आधारित सीडी और कैसेट साथ साथ बिक रहे थे तो मेरा दिमाग़ उस दृश्य में अटक गया जिसमें सीडीज़ और कैसेटों के ढेर पर पेट्रोल छिड़का जा रहा है। जब मैंने बच्चियों को टेढ़ी-मेढ़ी गलियों और बाज़ार से होकर स्कूल की ओर जाते देखा तो दिल ने पूछा यहां की लड़कियों के साथ स्कूलों में किसी को बम लगाने का विचार अब तक क्यों नहीं आया। जब मैंने बुर्क़ा पहने महिलाओं को साइकिल रिक्शे में जाते देखा तो मन ही मन पूछने लगा यहां मुहर्रम के बग़ैर महिलाएं आख़िर बाज़ार में कैसे घूम फिर सकती हैं। क्या कोई उन्हें सोटा मारने वाला नहीं। जब मैंने बैंड बाजे वाली एक बारात को गुज़रते देखा तो इंतज़ार करता रहा कि देखें कुछ नौजवान बैंड बाजे वालों को इन ख़ुराफ़ात से मना करने के लिए कब आँखें लाल करते हुए आते हैं।
जब मुझे एक स्कूल में लंच का निमंत्रण मिला और मेज़बान ने खाने की मेज़ पर परिचय करवाते हुए कहा कि ये फ़लाँ-फ़लाँ मौलाना हैं, ये हैं क़ारी साहब, ये हैं जगदीश भाई और उनके बराबर में हैं मुफ़्ती साहब और वो जो सामने बैठे मुस्कुरा रहे हैं, हम सबके प्यारे लाल मोहन जी हैं..... तो मैंने अपने ही बाज़ू पर चिकोटी काटी कि क्या मैं देवबंद में ही हूँ? अब मैं वापस दिल्ली पहुँच चुका हूँ और मेरे सामने हिंदुस्तान और पाकिस्तान का एक बड़ा सा नक़्शा फैला हुआ है, मैं पिछले एक घंटे से इस नक़्शे में वो वाला देवबंद तलाश करने की कोशिश कर रहा हूँ जो तालेबान, सिपाहे-सहाबा और लश्करे-झंगवी जैसे संगठनों का देवबंद है।

Monday, May 11, 2009

ज़िन्दगी को मौत के पहलू मे पाता हूँ....

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ऐ काश देखें वो मेरी पुरसोज़ रातों को,
मैं जब तारों पर नज़रें गड़ाकर आंसू बहाता हूं
तसव्वुर बन के भूली बातें याद आती हैं,
तो सोज़-ओ-दर्द की शिद्‍दत से पहरों तिलमिलाता हूं
कोई ख़्वाबों में ख़्वाबिदा उमंगों को जगाती है,
तो अपनी ज़िन्दगी को मौत के पहलू में पाता हूं
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Wednesday, April 22, 2009

वतन में बेवतन क्यूं है?

ज़ुबान-ए-हिन्द है उर्दू तो माथे की शिकन क्यूं है
वतन में बेवतन क्यूं है?

मेरी मज़लूम उर्दू तेरी सांसों में घुटन क्यूं है
तेरा लहजा महकता है तो लफ़्ज़ों में थकन क्यूं है
अगर तू फूल है तो फूल में इतनी चुभन क्यूं है
वतन में बेवतन क्यूं है?

ये नानक की ये खुसरो की दया शंकर की बोली है
ये दीवाली, ये बैसाखी, ये ईद-उल-फ़ित्‍र, होली है
मगर ये दिल की धड़कन आजकल दिल की जलन क्यूं है
वतन में बेवतन क्यूं है?

ये नाज़ों से पली थी मीर के ग़ालिब के आंगन में
जो सूरज बन के चमकी थी कभी महलों के दामन में
वो शहज़ादी ज़ुबानों की यहां बे-अन्जुमन क्यूं है
वतन में बेवतन क्यूं है?

मुहब्बत का सभी ऐलान कर जाते हैं महफ़िल में
कि इस के वास्ते जज़्बा है हमदर्दी का हर दिल में
मगर हक़ मांगने के वक़्त ये बेगानापन क्यूं है
वतन में बेवतन क्यूं है?

ये दोज़ीशा जो बाज़ारों से इठलाती गुज़रती थी
लबों की नाज़ुकी जिस की गुलाबों सी बिखरती थी
जो तहज़ीबों के सर की ओढ़नी थी अब कफ़न क्यूं है
वतन में बेवतन क्यूं है?

मुहब्बत का अगर दावा है तो इसको बचाओ तुम
जो वादा कल किया था आज वो वादा निभाओ तुम

अगर तुम राम हो तो फिर ये रावण का चलन क्यूं है
वतन में बेवतन क्यूं है?

Tuesday, March 24, 2009

वो कमरा बात करता था.....



मैं अब जिस घर मे रहता हूँ

बहुत ही खूबसूरत है।

मगर अक्सर यहां

खामोश बैठा याद करता हूँ........

वो कमरा बात करता था।

वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशां होगा...

मुझसे मरकर भी ना जाएगी वतन की उलफ़त,
मेरी मिट्टी से भी ख़ुशबू-ए-वतन आएगी

- भगत सिंह

Wednesday, March 11, 2009

होली मुबारक

आप सभी को होली की ढेरों शुभकामनाऐं। आईये इस होली पर हम सब हिन्दुस्तानी मिलकर भाईचारे और सौहार्द का एक ऐसा रंग तैयार करें जो आतंकवाद रुपी दाग़ पर इस तरह से चढे कि वो दाग हमारे देश की सरज़मी से हमेशा के लिये मिट जाये। एक बार फिर कलम के सभी सिपाहियों को होली की मुबारकबाद...
आपका..
परेवज़ सागर

Saturday, March 7, 2009

नेता जी कह रहें हैं कि.....







दुनिया ये समझती है...

मेरे सरकश तराने सुन के दुनिया ये समझती है
कि शायद मेरे दिल को इश्क़ के नग़मों से नफ़रत है,
मुझे हंगामा-ए-जंग-ओ-जदल में कैफ़ मिलता है
मेरी फ़ितरत को खूं-रेज़ी के अफ़सानों से रग़बत है,
मेरी दुनिया में कुछ वक़त नहीं है रक़्स-ओ-नग़मे की
मेरे महबूब नग़मा शोर-ए-आहंग-ए-बग़ावत है।

ज़िन्दगी से जुड़े कुछ अशआर

तुम तकल्लुफ को भी इखलास समझते हो फ़राज़,
दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलाने वाला।
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कोई काँटा चुभा नहीं होता
अगर फूल सा नहीं होता,
कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ ही कोई बेवफ़ा नहीं होता।
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ख़ुदा हम को ऐसी ख़ुदाई न दे
कि अपने सिवा कुछ दिखाई न दे,
ख़तावार समझेगी दुनिया तुझे
अब इतनी भी ज़्यादा सफ़ाई न दे।