"स्ट्रीगंर" आम आदमी के लिये ये नया या अन्जान शब्द हो सकता है। लेकिन पत्रकारिता से वास्ता रखने वालों के लिये ये शब्द आम है। पत्रकारिता के 13 सालों के दौरान मैं भी दो बार स्ट्रीगंर रहा। लेकिन उस वक्त और आज मे बड़ा फर्क आ गया है। पत्रकारिता की आधुनिकता के इस दौर मे स्ट्रीगंर के मायने बदलते जा रहे हैं। जो लोग इसके बारे मे नही जानते उन्हें बताना ज़रुरी हो जाता है कि आजकल पत्रकारिता की दुनिया मे स्ट्रीगंर ख़बर पाने का एक सस्ता सुलभ ज़रिया है। इसलिये अब हर शहर मे हर चैनल का स्ट्रीगंर मौजूद है। देश के कई न्यूज़ चैनल तो स्ट्रीगंरर्स की बदौलत ही चल रहे हैं। किसी भी शहर मे कोई घटना हो तो तुरन्त स्ट्रीगंर उसे अपने हैंडीकैम से कवर करके न्यूज़ चैनल को भेज देता है। स्ट्रीगंर मतलब वो पत्रकार जिसका चैनल या कम्पनी से सीधे कोई ताल्लुक नही होता बस ख़बर दो उसके बदले पैसा लो, जितनी ख़बरें उतना पैसा। पहले इन्हे माइक आईड़ी तक नसीब नही होती थी। पर अब लगभग सभी चैनल अपने स्ट्रीगंर को माइक आईड़ी देने लगे हैं और उनके साथ सालभर का एग्रीमेन्ट भी किया जाने लगा है।
न्यूज़ चैनलों की बढती तादाद के चलते आजकल हर शहर मे इलेक्ट्रोनिक मीडिया की बाढ़ सी आ गयी है। हालात ये है कि अगर कहीं कोई प्रेसवार्ता या अन्य कोई आयोजन हो रहा हो तो वहां तमाम माईक आईड़ी और टीवी पत्रकार दिखाई देगें जिनमे से शायद कईयों को पत्रकारिता के मायने तक मालूम ना हो। जिनका पत्रकारिता से दूर-दूर तक कोई लेना देना नही है वो भी स्ट्रीगंर बन रहे हैं या बनना चाहते हैं। ऐसे चैनलों की भी कमी नही है जो स्ट्रीगंर बनाने के लिये ज़मानत राशि के नाम पर मोटी रकम बटोर रहे हैं। नतीजा ये कि कई पूंजीपति अपना रुतबा और रोब बनाने की खातिर अपने बच्चों को पत्रकार बनाने के ख्वाब पाल रहे हैं या उन्हे पत्रकार बनाने मे जुटे हैं। इस सारी कवायद के चलते सबसे बड़ा नुकसान पत्रकारिता को हो रहा है। उसके बाद पेशेवर पत्रकारों कों। स्ट्रीगंर के रुप मे ऐसे लोग बड़ी संख्या मे पत्रकारिता करने उतर आयें हैं जो समाज मे बदनाम है या अपराधी हैं। जो केवल खुद के बचाने के लिये या फिर असामाजिक कामों को अन्जाम देने के लिये स्ट्रीगंर बनकर पत्रकार बन जाना चाहतें हैं। मुझे आज तक मे काम करते वक्त उत्तर भारत के कई शहरो में ख़बरों के लिये भेजा जाता रहा। मैं जहां भी गया एक बात समान थी कि हर शहर मे स्ट्रीगंरर्स की एक बड़ी जमात खड़ी हो गयी है। और उसमे ऐसे लोगों की तादाद ज़्यादा है जो शायद हिन्दी मे अपना नाम भी ठीक से ना लिख पाते हों लेकिन हाथ मे किसी चैनल का माईक आईड़ी और मुंह मे गुटखा बस बन गये पत्रकार। खासकर ये अधिकारियों या बड़े नेताओं के इर्द-गिर्द मन्ड़राते नज़र आते हैं। इस बात से वो सभी पत्रकार सहमत होगें जो लम्बे समय से पत्रकारिता करते आयें है और आज किसी चैनल के स्ट्रीगंर या रिपोर्टर है। उन्हे भी इन तथाकथित पत्रकारों की वजह से परेशानी का सामना करना पड़ता है। आज की तारीख मे अगर आप किसी बड़े नेता या अधिकारी से मुलाकात करने जायें तो उसका लहज़ा आपके साथ व्यंगात्मक हो सकता है। जिसकी वजह केवल वो स्ट्रीगंर हैं जो पत्राकरिता की आड़ मे अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। बहुत जल्द कामयाब हो जाने की लालसा भी उन लोगों को बहका रही है जो स्ट्रीगंर बनकर दूसरे रास्तों से पैसे कमाने की फिराक मे बैठें है। चैनल वाले पैसे दें या ना दें। बस स्ट्रीगंर बन जाने की होड़ सी लगी है। मेरे सामने एक या दो नही ऐसे कई उदहारण है जो इन सब बातों की पुष्टि करते हैं। ये सब लिखने का मकसद किसी की भावनाओं को ठेस पंहुचाना नही है बल्कि उन लोगों को आईना दिखाना है जो आंख बन्द कर के स्ट्रीगंर बनाने का काम कर रहे हैं। हो सकता है मेरे खुद के कुछ साथी मेरी बात से सहमत ना हो लेकिन जो आजकल मुझे जो दिख रहा है उसे देखकर तो ये ही लगता है कि आने वाले वक्त मे पत्रकारिता और पत्रकारों से आम लोगों को बचा-खुचा भरोसा भी उठ जायेगा। समाज मे ज़रुरत ऐसे स्ट्रीगंरर्स की है जो पत्रकार हो या पत्राकरिता की ज़िम्मेदारी को समझे। हमारी अपील है स्ट्रीगंर बनाने वाले और बनने वालों से कि अब बस.....।
Sunday, May 31, 2009
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