हाल ही में पाकिस्तान से एक वरिष्ठ पत्रकार जनाब वुसतुल्लाह ख़ान भारत की यात्रा पर आये और उन्होने अपनी यात्रा के दो दिन यूपी के (सहारनपुर) कस्बा देवबन्द मे बिताये। उनका अनुभव यहां कैसा रहा उन्होने लौट जाने के बाद उसे शब्दों की शक्ल दी। उनका लेख बीबीसी के पोर्टल पर प्रकाशित हुआ। पढकर अच्छा लगा इसलिये आपके लिये यहां पोस्ट कर रहा हूँ। उम्मीद है आपको भी पसन्द आयेगा वुसतुल्लाह ख़ान साहब का ये लेख:-
मैंने पिछले हफ़्ते दो दिन उत्तर प्रदेश के क़स्बे देवबंद में गुज़ारे। वही देवबंद जिसने पिछले डेढ़ सौ वर्षों में हज़ारों बड़े-बड़े सुन्नी उलेमा पैदा किए और जिनके लाखों शागिर्द भारतीय उप-महाद्वीप और दुनिया के कोने-कोने में फैले हुए हैं। आज भी दारुल-उलूम देवबंद से हर साल लगभग चौदह सौ छात्र आलिम बन कर निकलते हैं। देवबंद, जिसकी एक लाख से ज़्यादा जनसंख्या में मुसलमान 60 प्रतिशत हैं।
वहाँ पहुँचने से पहले मेरी ये परिकल्पना थी कि ये बड़ा सूखा सा क़स्बा होगा, जहाँ उलेमा की तानाशाही होगी और उनकी ज़ुबान से निकला हुआ एक-एक शब्द इस इलाक़े की मुस्लिम आबादी के लिए अंतिम आदेश का दर्जा रखता होगा, जहाँ संगीत के बारे में गुफ़्तगू तक हराम होगी, हिंदू और मुसलमान एक दूसरे को दूर-दूर से हाथ जोड़ कर गुज़र जाते होंगे, वहाँ किसी की हिम्मत नहीं होगी कि बग़ैर किसी डाँट-फटकार के बिना दाढ़ी या टख़नों से ऊँचे पाजामे के बिना वहाँ बसे रह सकें। देवबंद में मुसलमान मुहल्लों में अज़ान की आवाज़ सुनते ही दुकानों के शटर गिर जाते होंगे और सफ़ेद टोपी, कुर्ता-पाजामा पहने दाढ़ी वाले नौजवान डंडा घुमाते हुए ये सुनिश्चित कर रहे होंगे कि कौन मस्जिद की ओर नहीं जा रहा है। इसीलिए जब मैंने सफ़ेद कपड़ों में दाढ़ी वाले कुछ नौजवानों को देवबंद के मदरसे के पास एक नाई की दुकान पर शांति से अख़बार पढ़ते देखा तो फ़्लैशबैक मुझे उस मलबे के ढेर की ओर ले गया जो कभी हज्जाम की दुकान हुआ करता था। जब मैंने टोपी बेचने वाले एक दुकानदार के बराबर एक म्यूज़िक शॉप को देखा जिसमें बॉलीवुड मसाला और उलेमा के भाषण और उपदेश पर आधारित सीडी और कैसेट साथ साथ बिक रहे थे तो मेरा दिमाग़ उस दृश्य में अटक गया जिसमें सीडीज़ और कैसेटों के ढेर पर पेट्रोल छिड़का जा रहा है। जब मैंने बच्चियों को टेढ़ी-मेढ़ी गलियों और बाज़ार से होकर स्कूल की ओर जाते देखा तो दिल ने पूछा यहां की लड़कियों के साथ स्कूलों में किसी को बम लगाने का विचार अब तक क्यों नहीं आया। जब मैंने बुर्क़ा पहने महिलाओं को साइकिल रिक्शे में जाते देखा तो मन ही मन पूछने लगा यहां मुहर्रम के बग़ैर महिलाएं आख़िर बाज़ार में कैसे घूम फिर सकती हैं। क्या कोई उन्हें सोटा मारने वाला नहीं। जब मैंने बैंड बाजे वाली एक बारात को गुज़रते देखा तो इंतज़ार करता रहा कि देखें कुछ नौजवान बैंड बाजे वालों को इन ख़ुराफ़ात से मना करने के लिए कब आँखें लाल करते हुए आते हैं।
जब मुझे एक स्कूल में लंच का निमंत्रण मिला और मेज़बान ने खाने की मेज़ पर परिचय करवाते हुए कहा कि ये फ़लाँ-फ़लाँ मौलाना हैं, ये हैं क़ारी साहब, ये हैं जगदीश भाई और उनके बराबर में हैं मुफ़्ती साहब और वो जो सामने बैठे मुस्कुरा रहे हैं, हम सबके प्यारे लाल मोहन जी हैं..... तो मैंने अपने ही बाज़ू पर चिकोटी काटी कि क्या मैं देवबंद में ही हूँ? अब मैं वापस दिल्ली पहुँच चुका हूँ और मेरे सामने हिंदुस्तान और पाकिस्तान का एक बड़ा सा नक़्शा फैला हुआ है, मैं पिछले एक घंटे से इस नक़्शे में वो वाला देवबंद तलाश करने की कोशिश कर रहा हूँ जो तालेबान, सिपाहे-सहाबा और लश्करे-झंगवी जैसे संगठनों का देवबंद है।
Tuesday, May 26, 2009
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