Tuesday, August 4, 2009

ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है, बढ़ता है तो....


ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है, बढ़ता है तो मिट जाता है
ख़ून फिर ख़ून है, टपकेगा तो जम जायेगा

ख़ाक़-ए-सहरा पे जमे या कफ़-ए-क़ातिल पे जमे
फ़र्क़-ए-इन्साफ़ पे या पा-ए-सलासल पे जमे

तेग़-ए-बेदाद पे या लाशा-ए-बिस्मिल पे जमे
ख़ून फिर ख़ून है, टपकेगा तो जम जायेगा

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