ताइवान और अमेरिका से संचालित होने वाली अर्न्तराष्ट्रीय संस्था
गार्ड़न ऑफ होप फॉउन्डेशन की तरफ से एशियन ह्यूमन गर्ल्स राइटस् कान्फ्रेंस में बोलने
का निमत्रंण मिला। चंडीगढ़ के पंजाब विश्वविद्यालय में 28 सितम्बर 2014 से आयोजित इस
चार दिवसीय अर्न्तराष्ट्रीय कान्फ्रेंस में एशियाई देशों के प्रतिनिधियों ने खासी संख्या
में भागेदारी की। भारत की और से 30 सितम्बर को कान्फ्रेंस में भाषण दिया। देश का प्रतिनिधित्व
करना और अपने पेशे से जुड़े विषय पर बोलना मेरे लिये रोमांचक होने के साथ-साथ गौरव
की अनुभूति भी था। यहां मेरा वही भाषण पोस्ट कर रहा हूँ। आशा है आप पसंद करेंगे।
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नमस्कार।
एशियन गर्ल्स राइट कान्फ्रेंस के इस सत्र की अध्यक्षता कर
रहे माननीय सभापति एन्थोनी कारलसिस। इस कान्फ्रेंस को सफलता पूर्वक भारत में
आयोजित करने वाले ताईवान के गैर सरकारी संगठन गार्ड़न ऑफ होप और उनके सहयोगी भारतीय
गैर सरकारी संगठन युवासत्ता के सभी सम्मानित पदाधिकारी एंव स्वंयसेवियों.... भारत,
ताइवान, पाकिस्तान, नेपाल समेत विभिन्न एशियाई देशों से इस कान्फ्रेंस मे भागेदारी
करने आये सभी प्रतिनिधयों और इस सभागार में उपस्थित बालिकाओं के अधिकारों और उनके
हितों की लड़ाई लड़ने वाले मेरे सभी सम्मानित साथियों...
सबसे पहले मैं इस आयोजन को सफलतापूर्वक भारत मे आयोजित करने
के लिये बधाई देना चाहता हूँ गार्ड़न ऑफ होप संगठन को जिन्होने इस महत्वपूर्ण
आयोजन के लिये भारत को चुना और हम सभी को इस आयोजन में भागेदारी करने का अवसर
दिया। साथियों मेरा विषय है “बालिका अधिकारों के प्रति जागरुकता लाने में
टेलीविज़न मीडिया की सक्रीय भूमिका”। भारत में जिस तरह से
पिछले कुछ वर्षों में टेलीविज़न की पंहुच बढ़ी है और उसके माध्यम से सामाजिक
परिवेश में जो बदलाव हुये हैं उन्हे किसी भी स्तर पर नकारा नही जा सकता है। मैं
गैर लाभकारी संगठन (एनपीओ) स्मार्ट एजुकेशन एण्ड वैलफेयर एसोसिएशन ‘सेवा’ और परवेज़ सागर फॉउन्डेशन का संस्थापक होने के
साथ-साथ एक टीवी पत्रकार हूँ। पिछले कई सालों से भारतीय पत्रकारिता और खासकर टीवी
पत्रकारिता में कार्य कर रहा हूँ। मैने खुद टेलीविज़न मीडिया को भारतीय समाज पर
असर करते देखा है और देख रहा हूँ। आज टेलीविजन मीडिया के बिना भारतीय सामाजिक
परिवेश में सूचना और जनसम्पर्क की कल्पना करना भी बेमानी है। फिर भले ही वो समाचार
टीवी चैनल हो या फिर मनोरंजन चैनल। भारत के घर-घर में पंहुचने का सबसे सुलभ और
आसाना तरीका टेलीविज़न मीडिया है। जब हम विकास, शिक्षा और जागरुकता की बात करते
हैं तो कहीं ना कहीं टेलीविज़न मीडिया की भूमिका उसमे शामिल होती है। ऐसे में
बालिका अधिकारों और शिक्षा जैसे अहम मुद्दे को भी इस संचार माध्यम से अलग कर देखा
नही जा सकता। लोगों को आसानी से बात समझाने के लिये बेहतर और आसान तरीका केवल टीवी
है। साथियों आप सभी इस बात से सहमत होंगे कि हम किसी इंसान को जो बात लिखकर या
कहकर नही समझा सकते... उसे चलचित्र यानि ऑडियो-वीडियों के रुप में लोगों को समझाना
बेहद आसान है। और उसके लिये ये ज़रुरी नही कि सामने वाले व्यक्ति अनिवार्य रुप से
शिक्षित या साक्षर हो।
साथियों भारत में ऐसी बालिकाओं और महिलाओं की कमी नही है जिन्होंने
विभिन्न क्षेत्रों में नई ऊंचाइयों को छुआ है और नये कीर्तीमान भी स्थापित किये
हैं। लेकिन अफसोस की बात है कि आज भी कई कारणों से बालिकाओं को बहुत सारी
परेशानियों का सामना करना पड़ता है। कई तरह से उनके अधिकारों का हनन होता है। वो
चाहे अशिक्षा हो या फिर बाल विवाह जैसी कुरीति हो या यौन शौषण के बढ़ते हुये
मामले... सभी में उनके मानव अधिकारों की अनदेखी और हनन होता है। भारत में हर साल
इस तरह के हज़ारों मामले सामने आते हैं। बालिका अधिकार हनन, महिला हिंसा और महिला
शोषण जैसे कई मामले आये दिन टीवी न्यूज़ चैनल्स के ज़रीये लोगों को पता चलते हैं।
हमारी कोशिश रहती है कि इस तरह के मामलों में हम बिना पीडिता की पहचान बताये उसके
साथ हुये अन्याय की जड़ तक जायें और अपने माध्यम से जो सकारात्मक सहयोग कर सकते
हैं करें। यदि किसी भी स्तर पर इस तरह के मामले को दबाने या छिपाने के प्रयास किये
जाते हैं तो हमारी कोशिश रहती है कि ऐसा ना हो पाये और सही तथ्य लोगों के सामने
आयें। यहां मौजूद भारतीय साथियों को जानकारी होगी कि इस बात सबसे बड़ा उदहारण
दिल्ली का निर्भया केस और यूपी के बदायूं का ताज़ा मामला है।
हमारे समाज में कई इस तरह के उदहारण है कि जिनमें टीवी
मीडिया की भूमिका की वजह से बालिकाओं को किसी ना किसी स्तर पर न्याय मिला। ऐसे भी
मामलों की कमी नही है जिनमें किसी भी तरह से पीड़िता या उपलब्धि हासिल करने वाली
बालिकाओं के विषय में लोगों को टीवी के माध्यम से ही पता चल पाया। एक बड़ा उदहारण यहां आपके सामने रखना चाहुंगा
जिसमें बालिकाओं के साथ होने वाले अमानवीय कृत्य को मीडिया ने उजागार किया। कुछ
वर्ष पूर्व यूपी
के फ़र्रुखाबाद जिले में कम उम्र की लड़कियों को हार्मोन के इंजेक्शन देकर उन्हें
समय से पूर्व ही बड़ा किये जाने और उनसे वेश्यावृत्ति कराये जाने का सनसनीखेज मामला सामने आया था। इस मामले के मीडिया में आ जाने के बाद कई
लोगों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही हुई थी। यहां तक कि इस मामले की जांच में लापरवाही
बरतने वाले कई अधिकारियों के खिलाफ भी कार्यवाही हुई थी।
ऐसा ही एक और प्रकरण यूपी में वर्ष
2012 में सामने आया था जिसमें पूर्वांचल में बालिकाओं के लिये संचालित कथित
विश्वविद्यालय में ही उनके साथ अमानवीय कार्य किये जा रहे थे। मामला मीडिया में
आने के बाद इस मामले में आरोपियों को जेल भेजा गया।
यहां तक कि इस तरह के मामले भी
टेवीविज़न मीडिया के माध्यम से ही लोगों को सामने उजागार हुये जिनमें बालिकाओं को
बाहर से लाकर बेच दिया जाता है। घरों में काम कराने के नाम पर उनके साथ यौन शोषण
और हिंसा की जाती है। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि इस तरह के मामलों में पाया
गया कि उडीसा, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ से बड़े स्तर पर ऐसी बालिकाओं को
लाया जाता है जिनके घरों में धन की कमी हो या फिर उनके परिवार भुखमरी के कगार पर
हों। टीवी मीडिया के माध्यम से उजागार होने वाले इस तरह के मामलों में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और महिला आयोग के साथ बाल विकास से जुड़े
लोगों ने भी आगे आकर कार्यवाही के लिए दबाव बनाया।
स्मार्ट एजुकेशन एण्ड वैलफेयर एसोसिएशन ‘सेवा’ और परवेज़ सागर फॉउन्डेशन का मानना है कि बालिकाएं
भारतीय समाज का सबसे नाज़ुक हिस्सा है। जिस तरह से उनके प्रति होने वाले अपराध और
हिंसा के मामले बढ़े हैं यकीकन वो चिन्ताजनक हैं। यही नही बाल विवाह के मामलों में
बांग्लादेश के बाद भारत का विश्व मे दूसरा स्थान है। यूनीसेफ की एक रिर्पोट के
मुताबिक दक्षिण एशिया में कुल बालिकाओं की संख्या से आधी बालिकाओं की शादी 18 साल
से पहले हो जाती है। और पांच में से एक बालिका की शादी 15 साल से पहले हो जाती है।
आपको जानकर हैरानी होगी कि ये दुनिया में सर्वोच्च दर है। भारत में वर्ष 2005 और
2013 के बीच 43 फीसदी बालिकाओं की शादी 18 साल की उम्र तक कर दी गयी। 10 साल तक की
जिन बालिकाओं को स्कूल नही भेजा जाता उनकी शादी की सम्भावनाऐं बढ़ जाती हैं। एशिया
में लिंग अनुपात के मामले में अभी भी भारत, अफगानिस्तान और पाकिस्तान में हालात
बेहतर नही हैं। इस तरह से इन देशों में बालिका अधिकार हनन के मामलों की संख्या भी
ज्यादा है।
2011 की जनगणना से पता चलता है कि कुल लिंग अनुपात 933 से
बढ़कर 940 हो गया है। लेकिन 1000 लड़कों के पीछे लड़कियों के अनुपात में गिरावट आई
है यानी बच्चों का लिंग अनुपात जो 2001 में 927 था वह 2011 में 914 हो गया। नई
जनगणना से साफ कि भारत के 22 राज्यों और 5 संघ शासित क्षेत्रों में बच्चों के
लिंग अनुपात में गिरावट आई है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के
आंकड़ों के अनुसार 43 प्रतिशत बालिकाऐं सही देखभाल के अभाव में आज भी कुपोषित हैं।
ये उनके मानवीय अधिकारों के हनन की बड़ी मिसाल है।
टेलीविज़न मीडिया की का सहयोग कैसे लें ?
साथियों भारत
में टेलीविज़न मीड़िया की महत्ता पर मैने पहले ही आपको बताया और आप सभी पहले इन सब
तथ्यों से वाकिफ भी हैं। कुछ साल पहले तक केवल राष्ट्रीय स्तर के समाचार चैनल होते
थे। जिन पर स्थानीय समाचारों या मुद्दों को जगह मिलना आसान नही था। लेकिन पिछले
कुछ सालों में भारत में प्रादेशिक समाचार चैनलों की संख्या में खासा इज़ाफा हुआ
है। हर राज्य में कई-कई प्रादेशिक समाचार एंव मनोरंजन चैनलों का प्रसारण हो रहा
है। प्रादेशिक समाचार चैनलों के आने से नगर स्तर तक की ख़बरों का टीवी पर चलना
आसान हो गया है। ऐसे में जो एनजीओ या एनपीओ इस बालिका विकास और अधिकारों के लिये
काम कर रहे हैं उन्हे चाहिये कि वो अपने क्षेत्रीय एंव प्रादेशिक समाचार माध्यमों
खासकर टेलीविज़न मीडिया के साथ संवाद स्थापित करें। बालिकाओं के साथ होने वाले
अपराधों और मानवाधिकार हनन के मामलों को पुलिस के साथ-साथ मीडिया से भी साझा करें।
सही तथ्यों को मीडिया के समक्ष रख कर पीड़िता को न्याय दिलाने के प्रयास करें। मैं
ये नही कहता कि हम मीडिया वाले खुद किसी को न्याय दे सकते हैं लेकिन हमारे प्रयास
से दबाव बनाने की रणनीति सार्थक हो सकती है। यदि आप किसी एनजीओ या एनपीओ का संचालन
करते हैं तो आप मीडियाकर्मीयों के साथ बेहतर तालमेल स्थापित करने के लिये उनके साथ
कार्यशाला आदि का आयोजन करें। अपनी बातों को उनके समक्ष रखने के साथ-साथ बालिका
अधिकारों और शिक्षा जागरुकता सम्बंधी आयोजनों और जानकारी को उनके साथ साझा करें।
मीडिया के माध्यम से जागरूकता बढ़ाने और बालिकाओं को नए
अवसरों की पेशकश की जाये। बालिकाओं के सामने आने वाली सभी असमानताओं को समाप्त करने
के सार्थक प्रयास हों। साथ ही यह सुनिश्चित किया जाये की प्रत्येक बालिका को
उचित सम्मान, मानवाधिकार और भारतीय समाज में मूल्य मिले।
टीवी मीडिया पर इस तरह की बहस आयोजित हों जिनमें बालिकाओं पर लगे सामाजिक कलंक से
मुकाबला करने और बच्चों के लिंग अनुपात को खत्म करने के सम्बंध में बात की जाये।
ऐसे समाचारों या कार्यक्रमों के माध्यम से बालिकाओं की भूमिका और उनके महत्व के
बारे में जागरूकता को बढावा दिया जाये जो बालिकाओं के स्वास्थ्य, शिक्षा, पोषण आदि से जुड़े हों। हमारी संस्था
स्मार्ट एजुकेशन एण्ड वैलफेयर एसोसिएशन ‘सेवा’ और परवेज़ सागर फॉउन्डेशन ने अपने कार्यक्रमों और जागरुकता अभियानों में
हमेशा स्थानीय मीडिया को शामिल करने की पहल की है। हमने उन्हे कार्यक्रमों की
कवरेज के लिये नही बल्कि भागेदारी के लिये आमंत्रित किया।
यदि आपको लगता है कि किसी समाचार चैनल पर ऐसी कोई ख़बर या
कार्यक्रम चल रहा है जो बालिका अधिकारों का हनन करता है या सामाजिक तौर पर उसके
सम्मान को ठेस पंहुचती है। तो कभी भी भारतीय समाचार टेलीविज़न चैनलों के संगठन
एनबीए को इसकी शिकायत कर सकते हैं।
सबसे अहम ज़रुरत इस बात की है कि टेलीविज़न मीडिया के साथ
संवाद स्थापित किये जाना चाहिये। और उनको अपने कार्यक्रमों का हिस्सा बनाया जाये। अक्सर
लोग शिकायत करते हैं कि मीडिया वाले उनके कार्यक्रम में नही आते या उनके कार्यक्रम
की ख़बर नही दिखाते... मगर ऐसा क्यों होता है ये समझना भी ज़रुरी है। दरअसल हर
समाचार चैनल अपनी ख़बरों और कार्यक्रमों का स्तर और समय पहले ही तय कर लेता है।
राष्ट्रीय समाचार चैनलों और प्रादेशिक या स्थानीय समाचार चैलनों की प्राथमिकता भी
अलग-अलग होती है। किसी संगठन या बालिका अधिकारों या हनन के समाचार प्रसारित किये
जाना इस बात पर भी निर्भर करता है कि मीडिया के समक्ष वो मामला किस तरह से
प्रस्तुत किया गया। यदि पीड़िता या एनजीओ अपनी बात या सूचना को सही तथ्यों के साथ
टीवी मीडिया के समक्ष नही रख पाते या फिर समाचार अथवा कार्यक्रम के अनुसार
चलचित्र, विजुअल यानि ऑडियो-वीडियो नही मिल पाते तो समाचार को प्रसारित करना किसी
भी टीवी चैनल के लिये मुश्किल हो जाता है।
समय की कमी है इसलिये संक्षेप में मनोरंजन टीवी चैनल्स की
अगर बात की जाये तो वहां भी बालिका एंव महिला अधिकारों, शिक्षा और शोषण जैसे
विषयों पर कई कार्यक्रम अथाव धारावाहिक जिन्हे हम सीरियल भी कहते हैं, प्रसारित हो
रहे हैं। इनमें सबसे बड़ा उदहारण है कि कलर्स टीवी पर प्रसारित होने वाला
धारावाहिक ‘बालिका वधु’ जिसकी नायिका आनंदी खुद बाल विवाह का शिकार होने के बाद हिम्मत से काम
लेती है और फिर दूसरी बालिकाओं को बाल विवाह से बचाकर शिक्षा की राह पर चलाती है।
सामाजिक कुरितियों को विरोध भी इस टीवी सीरियल में दिखता है। ज़ी के नये मनोरंजन
चैनल ज़िन्दगी पर भी “कितनी गिरहें बाकी हैं....” नामक एक पाकिस्तानी सीरियल का प्रसारण हो रहा है जो बालिकाओं और महिलाओं
के साथ होने वाले घरेलू और सामाजिक अत्याचारों को उजागर करने का काम कर रहा है।
इसी तरह से देश के तमाम मनोरंजन चैनल बालिका अधिकारों पर आधारित कार्यक्रमों का
प्रसारण कर रहे हैं।
अंत में एक बार फिर से इस बात पर ज़ोर देना चाहता हूँ कि
बालिका और महिला अधिकारों और उनकी शिक्षा से जुड़े मुद्दों को मीडिया के सामने
मज़बूत तथ्यों के साथ पेश किया जाना चाहिये ताकि समाचार प्रसारित करने वाले चैनल
के लोग आपके कार्यक्रम या समाचार का चुनाव प्रसारण के लिये कर सकें। क्योंकि भारत
ही नही बल्कि पूरे विश्व में लोगों को अपनी बात समझाने का सबसे सरल तरीका
टेलीविज़न है। मैं एक बार फिर से अपने संगठन स्मार्ट एजुकेशन एण्ड वैलफेयर
एसोसिएशन ‘सेवा’ और परवेज़ सागर
फॉउन्डेशन की और से आभार जताना चाहूँगा गार्ड़न ऑफ होप संस्था और उनके सभी
सहयोगियों को जिन्होने एक संवेदनशील मुद्दे को लेकर भारत में ये सफल और सार्थक
आयोजन किया। और मुझे अवसर दिया कि मैं अपनी बात आप जैसे सुधीजनों के बीच रख सकूँ।
बहुत-बहुत धन्यवाद.... शुक्रिया।
जय हिन्द।
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परवेज़ सागर
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