Sunday, May 31, 2009

आज का स्ट्रीगंर- पत्रकार या.....?

"स्ट्रीगंर" आम आदमी के लिये ये नया या अन्जान शब्द हो सकता है। लेकिन पत्रकारिता से वास्ता रखने वालों के लिये ये शब्द आम है। पत्रकारिता के 13 सालों के दौरान मैं भी दो बार स्ट्रीगंर रहा। लेकिन उस वक्त और आज मे बड़ा फर्क आ गया है। पत्रकारिता की आधुनिकता के इस दौर मे स्ट्रीगंर के मायने बदलते जा रहे हैं। जो लोग इसके बारे मे नही जानते उन्हें बताना ज़रुरी हो जाता है कि आजकल पत्रकारिता की दुनिया मे स्ट्रीगंर ख़बर पाने का एक सस्ता सुलभ ज़रिया है। इसलिये अब हर शहर मे हर चैनल का स्ट्रीगंर मौजूद है। देश के कई न्यूज़ चैनल तो स्ट्रीगंरर्स की बदौलत ही चल रहे हैं। किसी भी शहर मे कोई घटना हो तो तुरन्त स्ट्रीगंर उसे अपने हैंडीकैम से कवर करके न्यूज़ चैनल को भेज देता है। स्ट्रीगंर मतलब वो पत्रकार जिसका चैनल या कम्पनी से सीधे कोई ताल्लुक नही होता बस ख़बर दो उसके बदले पैसा लो, जितनी ख़बरें उतना पैसा। पहले इन्हे माइक आईड़ी तक नसीब नही होती थी। पर अब लगभग सभी चैनल अपने स्ट्रीगंर को माइक आईड़ी देने लगे हैं और उनके साथ सालभर का एग्रीमेन्ट भी किया जाने लगा है।
न्यूज़ चैनलों की बढती तादाद के चलते आजकल हर शहर मे इलेक्ट्रोनिक मीडिया की बाढ़ सी आ गयी है। हालात ये है कि अगर कहीं कोई प्रेसवार्ता या अन्य कोई आयोजन हो रहा हो तो वहां तमाम माईक आईड़ी और टीवी पत्रकार दिखाई देगें जिनमे से शायद कईयों को पत्रकारिता के मायने तक मालूम ना हो। जिनका पत्रकारिता से दूर-दूर तक कोई लेना देना नही है वो भी स्ट्रीगंर बन रहे हैं या बनना चाहते हैं। ऐसे चैनलों की भी कमी नही है जो स्ट्रीगंर बनाने के लिये ज़मानत राशि के नाम पर मोटी रकम बटोर रहे हैं। नतीजा ये कि कई पूंजीपति अपना रुतबा और रोब बनाने की खातिर अपने बच्चों को पत्रकार बनाने के ख्वाब पाल रहे हैं या उन्हे पत्रकार बनाने मे जुटे हैं। इस सारी कवायद के चलते सबसे बड़ा नुकसान पत्रकारिता को हो रहा है। उसके बाद पेशेवर पत्रकारों कों। स्ट्रीगंर के रुप मे ऐसे लोग बड़ी संख्या मे पत्रकारिता करने उतर आयें हैं जो समाज मे बदनाम है या अपराधी हैं। जो केवल खुद के बचाने के लिये या फिर असामाजिक कामों को अन्जाम देने के लिये स्ट्रीगंर बनकर पत्रकार बन जाना चाहतें हैं। मुझे आज तक मे काम करते वक्त उत्तर भारत के कई शहरो में ख़बरों के लिये भेजा जाता रहा। मैं जहां भी गया एक बात समान थी कि हर शहर मे स्ट्रीगंरर्स की एक बड़ी जमात खड़ी हो गयी है। और उसमे ऐसे लोगों की तादाद ज़्यादा है जो शायद हिन्दी मे अपना नाम भी ठीक से ना लिख पाते हों लेकिन हाथ मे किसी चैनल का माईक आईड़ी और मुंह मे गुटखा बस बन गये पत्रकार। खासकर ये अधिकारियों या बड़े नेताओं के इर्द-गिर्द मन्ड़राते नज़र आते हैं। इस बात से वो सभी पत्रकार सहमत होगें जो लम्बे समय से पत्रकारिता करते आयें है और आज किसी चैनल के स्ट्रीगंर या रिपोर्टर है। उन्हे भी इन तथाकथित पत्रकारों की वजह से परेशानी का सामना करना पड़ता है। आज की तारीख मे अगर आप किसी बड़े नेता या अधिकारी से मुलाकात करने जायें तो उसका लहज़ा आपके साथ व्यंगात्मक हो सकता है। जिसकी वजह केवल वो स्ट्रीगंर हैं जो पत्राकरिता की आड़ मे अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। बहुत जल्द कामयाब हो जाने की लालसा भी उन लोगों को बहका रही है जो स्ट्रीगंर बनकर दूसरे रास्तों से पैसे कमाने की फिराक मे बैठें है। चैनल वाले पैसे दें या ना दें। बस स्ट्रीगंर बन जाने की होड़ सी लगी है। मेरे सामने एक या दो नही ऐसे कई उदहारण है जो इन सब बातों की पुष्टि करते हैं। ये सब लिखने का मकसद किसी की भावनाओं को ठेस पंहुचाना नही है बल्कि उन लोगों को आईना दिखाना है जो आंख बन्द कर के स्ट्रीगंर बनाने का काम कर रहे हैं। हो सकता है मेरे खुद के कुछ साथी मेरी बात से सहमत ना हो लेकिन जो आजकल मुझे जो दिख रहा है उसे देखकर तो ये ही लगता है कि आने वाले वक्त मे पत्रकारिता और पत्रकारों से आम लोगों को बचा-खुचा भरोसा भी उठ जायेगा। समाज मे ज़रुरत ऐसे स्ट्रीगंरर्स की है जो पत्रकार हो या पत्राकरिता की ज़िम्मेदारी को समझे। हमारी अपील है स्ट्रीगंर बनाने वाले और बनने वालों से कि अब बस.....।

Tuesday, May 26, 2009

ये देवबन्द या वो देवबन्द.....?

हाल ही में पाकिस्तान से एक वरिष्ठ पत्रकार जनाब वुसतुल्लाह ख़ान भारत की यात्रा पर आये और उन्होने अपनी यात्रा के दो दिन यूपी के (सहारनपुर) कस्बा देवबन्द मे बिताये। उनका अनुभव यहां कैसा रहा उन्होने लौट जाने के बाद उसे शब्दों की शक्ल दी। उनका लेख बीबीसी के पोर्टल पर प्रकाशित हुआ। पढकर अच्छा लगा इसलिये आपके लिये यहां पोस्ट कर रहा हूँ। उम्मीद है आपको भी पसन्द आयेगा वुसतुल्लाह ख़ान साहब का ये लेख:-
मैंने पिछले हफ़्ते दो दिन उत्तर प्रदेश के क़स्बे देवबंद में गुज़ारे। वही देवबंद जिसने पिछले डेढ़ सौ वर्षों में हज़ारों बड़े-बड़े सुन्नी उलेमा पैदा किए और जिनके लाखों शागिर्द भारतीय उप-महाद्वीप और दुनिया के कोने-कोने में फैले हुए हैं। आज भी दारुल-उलूम देवबंद से हर साल लगभग चौदह सौ छात्र आलिम बन कर निकलते हैं। देवबंद, जिसकी एक लाख से ज़्यादा जनसंख्या में मुसलमान 60 प्रतिशत हैं।
वहाँ पहुँचने से पहले मेरी ये परिकल्पना थी कि ये बड़ा सूखा सा क़स्बा होगा, जहाँ उलेमा की तानाशाही होगी और उनकी ज़ुबान से निकला हुआ एक-एक शब्द इस इलाक़े की मुस्लिम आबादी के लिए अंतिम आदेश का दर्जा रखता होगा, जहाँ संगीत के बारे में गुफ़्तगू तक हराम होगी, हिंदू और मुसलमान एक दूसरे को दूर-दूर से हाथ जोड़ कर गुज़र जाते होंगे, वहाँ किसी की हिम्मत नहीं होगी कि बग़ैर किसी डाँट-फटकार के बिना दाढ़ी या टख़नों से ऊँचे पाजामे के बिना वहाँ बसे रह सकें। देवबंद में मुसलमान मुहल्लों में अज़ान की आवाज़ सुनते ही दुकानों के शटर गिर जाते होंगे और सफ़ेद टोपी, कुर्ता-पाजामा पहने दाढ़ी वाले नौजवान डंडा घुमाते हुए ये सुनिश्चित कर रहे होंगे कि कौन मस्जिद की ओर नहीं जा रहा है। इसीलिए जब मैंने सफ़ेद कपड़ों में दाढ़ी वाले कुछ नौजवानों को देवबंद के मदरसे के पास एक नाई की दुकान पर शांति से अख़बार पढ़ते देखा तो फ़्लैशबैक मुझे उस मलबे के ढेर की ओर ले गया जो कभी हज्जाम की दुकान हुआ करता था। जब मैंने टोपी बेचने वाले एक दुकानदार के बराबर एक म्यूज़िक शॉप को देखा जिसमें बॉलीवुड मसाला और उलेमा के भाषण और उपदेश पर आधारित सीडी और कैसेट साथ साथ बिक रहे थे तो मेरा दिमाग़ उस दृश्य में अटक गया जिसमें सीडीज़ और कैसेटों के ढेर पर पेट्रोल छिड़का जा रहा है। जब मैंने बच्चियों को टेढ़ी-मेढ़ी गलियों और बाज़ार से होकर स्कूल की ओर जाते देखा तो दिल ने पूछा यहां की लड़कियों के साथ स्कूलों में किसी को बम लगाने का विचार अब तक क्यों नहीं आया। जब मैंने बुर्क़ा पहने महिलाओं को साइकिल रिक्शे में जाते देखा तो मन ही मन पूछने लगा यहां मुहर्रम के बग़ैर महिलाएं आख़िर बाज़ार में कैसे घूम फिर सकती हैं। क्या कोई उन्हें सोटा मारने वाला नहीं। जब मैंने बैंड बाजे वाली एक बारात को गुज़रते देखा तो इंतज़ार करता रहा कि देखें कुछ नौजवान बैंड बाजे वालों को इन ख़ुराफ़ात से मना करने के लिए कब आँखें लाल करते हुए आते हैं।
जब मुझे एक स्कूल में लंच का निमंत्रण मिला और मेज़बान ने खाने की मेज़ पर परिचय करवाते हुए कहा कि ये फ़लाँ-फ़लाँ मौलाना हैं, ये हैं क़ारी साहब, ये हैं जगदीश भाई और उनके बराबर में हैं मुफ़्ती साहब और वो जो सामने बैठे मुस्कुरा रहे हैं, हम सबके प्यारे लाल मोहन जी हैं..... तो मैंने अपने ही बाज़ू पर चिकोटी काटी कि क्या मैं देवबंद में ही हूँ? अब मैं वापस दिल्ली पहुँच चुका हूँ और मेरे सामने हिंदुस्तान और पाकिस्तान का एक बड़ा सा नक़्शा फैला हुआ है, मैं पिछले एक घंटे से इस नक़्शे में वो वाला देवबंद तलाश करने की कोशिश कर रहा हूँ जो तालेबान, सिपाहे-सहाबा और लश्करे-झंगवी जैसे संगठनों का देवबंद है।

Monday, May 11, 2009

ज़िन्दगी को मौत के पहलू मे पाता हूँ....

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ऐ काश देखें वो मेरी पुरसोज़ रातों को,
मैं जब तारों पर नज़रें गड़ाकर आंसू बहाता हूं
तसव्वुर बन के भूली बातें याद आती हैं,
तो सोज़-ओ-दर्द की शिद्‍दत से पहरों तिलमिलाता हूं
कोई ख़्वाबों में ख़्वाबिदा उमंगों को जगाती है,
तो अपनी ज़िन्दगी को मौत के पहलू में पाता हूं
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