देश की आजादी के लिए लड़ी गई जंग में लखनऊ शहर की अहम भूमिका रही है। यहां जंग-ए-आज़ादी में कई नवाबों और स्वतंत्रता सेनानियों ने अपना योगदान दिया। सबसे अहम बात है कि अवध के नवाबों के साथ-साथ उनकी मलिकाओं ने भी अंग्रेजों से लडाई लड़ी।
तहज़ीब और अदब का शहर लखनऊ। इस शहर में कई ऐसी निशानियां मौजूद हैं जो जंग-ए-आजादी की गवाह हैं। रेजीडेन्सी हो या फिर बेगम हजरत महल पार्क, बड़ा इमाम बाड़ा हो या फिर कैसरबाग ये सभी वो जगह हैं, जहां 1856 के बाद से ही कई बार आजादी के दिवानों और अंग्रेजों के बीच आर-पार की लड़ाई हुई।
स्वतंत्रता आंदोलन की अलख जलते ही उसकी आग लखनऊ पहुंच गई थी। उस वक्त अवध के शासक नवाब वाजिद अली शाह ने अंग्रेजों के सामने घुटने टेकने से मना कर दिया था। जिसके बाद अंग्रेज आपा खो बैठे और कई आन्दोलनकारियों को अपना बलिदान करना पड़ा।
अवध में जब आजादी के दिवानों ने अंग्रेजी हुकुमत की खिलाफत शुरू की तो उन पर अत्याचार भी बढ़ने लगे। इस दौरान आजाद भारत की मांग बढ़ते देख अंग्रेजों ने लखनऊ के कैसरबाग पर हमला किया था। जिसमें कई लोगों ने अपना बलिदान दिया। अंग्रेजों की ताकत बढ़ती देख नवाब वाजिद अली शाह की पत्नी बेगम हजरत महल भी इस जंग में कूद पड़ी। नवाब साहब को लखनऊ छोड़ना पड़ा तो उनकी गैर मौजूदगी में बेगम हजरत महल ने कमान संभाल ली।
1856 से शुरू हुआ सिलसिला बहुत आगे तक बढ़ गया। बहादुर शाह जफर के बाद उनके कई वारिस इस लड़ाई में कूद पड़े। रानी लक्ष्मी बाई और तांत्या टोपे ने भी लखनऊ में चल रहे आन्दोलन को अपना समर्थन दिया था। उन्होंने बेगम हजरत महल के हौसले की तारीफ की थी।
जंग-ए-आज़ादी के दौरान अंग्रेजों ने लखनऊ की कई ऐसी आलीशान इमारतों को उड़ा दिया जो यहां की सांस्कृतिक विरासत मानी जाती थी। एक दौर ऐसा भी आया कि अंग्रेजों ने बड़े इमाम बाड़े को छावनी में तब्दील कर दिया था। देश आजाद हो जाने के बाद भी इस शहर में आज ऐसी कई निशानियां बाकी हैं जो गुजरे हुए कल की याद दिलाती हैं। आज यहां के लोग उन किस्सों को बयां करते हैं जो जंग-ए-आजादी के दौरान यहां गुजरे थे। आजादी की लड़ाई के इतिहास में अवध की शान लखनऊ का योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकेगा।
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Wednesday, August 20, 2014
जंग-ए-आज़ादी में अहम मुकाम है लखनऊ का
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